भुवनेश्वर
कभी आदिवासी लोगों के मनोरंजन का प्रमुख साधन रहे कटी खेल से अब युवाओं का मोह भंग होता जा रहा है। इसकी जगह वे अब फुटबॉल, हॉकी, तीरंदाजी, क्रिकेट और वॉलीबॉल जैसे खेलों में रुचि ले रहे हैं। इसके अलावा, रोजी-रोटी के लिए युवा शहरों और कस्बों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिससे आदिवासी क्षेत्रों का मिलनसार और एकजुटता वाला वह पुराना माहौल और पारंपरिक खेलों की संस्कृति ही खत्म हो गई है।
कटी खेल भी इसी बदलते माहौल की भेंट चढ़ रहा है, जिसके प्रति खिलाड़ियों का जुनून कम हो गया है। वैसे अभी भी यदि ध्यान दिया जाए तो इस खेल को बचाया जा सकता है, क्योंकि कुछ शौकीन प्रमोटर और समर्पित खिलाड़ी अभी भी इसे बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
इस खेल का नाम कटी रखा गया है, जो बबूल या इमली के पेड़ की कठोर लकड़ी से बनता है। यह अर्ध चंद्राकार जैसा दिखता है, जिसे खेल के दौरान दोनों विरोधी टीमें एक-दूसरे के खिलाफ मारती हैं। इसे खेलने के लिए आयताकार मैदान बनाया जाता है, जहां आयत की दोनों रेखाओं के समानांतर बीच में एक रेखा खींची जाती है। खेल में एक लकड़ी का लट्ठा होता है, जिसे बर्घा कहते हैं। उस बर्घे को बीच की रेखा के मध्य बिंदु पर रखा जाता है। बीच वाली रेखा के विपरीत दिशा में जमीन पर दो समानांतर रेखाएं भी खींची जाती हैं। ध्यान देने वाली बात यह होती है कि प्रत्येक रेखा और बीच की रेखा के बीच की दूरी 2 और 2.5 फीट होती है।
एक तरफ की लाइन पर कई कटी रखी जाती हैं। खिलाड़ी बांस की छड़ी के ऊपरी हिस्से को मजबूती से पकड़ता है और उसके निचले हिस्से को इस तरह से लात मारता है कि वह एक कटी से टकराए। यदि इस तरह मारने से कटी बीच की रेखा को पार कर दूसरी तरफ की रेखा के ऊपर जाकर गिर जाती है, तो यह जीत की ओर पहला कदम माना जाता है।
इस प्रकार खिलाड़ी अपनी जीत पुख्ता करने के लिए एक के बाद एक अन्य कटियों को मारता है और उन्हें बीच की रेखा के पार दूसरी समानांतर रेखा पर भेजने की कोशिश करता है। अब खेल में एक नया मोड़ आता है। यहां वह खिलाड़ी जिसने सभी कटियों को मार कर सफलतापूर्वक दूसरी ओर पहुंचा दिया, अब उन कटियों को उस स्थान से इस प्रकार मारता है कि वे बर्घा पर जाकर गिरें। यदि खिलाड़ी ऐसा करने में कामयाब हो जाता है तो उसकी जीत का ऐलान कर दिया जाता है।
ज्यादातर जनवरी से अप्रैल के बीच अथवा ‘राजा पर्व’ जैसे विशेष तीज-त्योहारों/अवसरों पर खेले जाने वाले इस खेल ने कभी आदिवासियों के सामाजिक और धार्मिक जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया था। अंगारापाड़ा गांव के रहने वाले जसवंत मुर्मी ने कहा, ‘यह खेल भावनाओं से ऐसा जुड़ा होता है कि कभी-कभी एक टीम की जीत या हार एक गांव की लडक़ी और दूसरे गांव के लडक़े के बीच शादी का सबब बन जाती है। यानी पहले से तय हो जाता है कि यदि एक गांव की टीम जीती तो लडक़ी की शादी दूसरी टीम वाले गांव के लडक़े के साथ करनी पड़ेगी और हार गए तो उसका उल्टा। सभी इस शर्त पर सहमत होते हैं और बड़े उत्साह के साथ खेल खेला जाता है।’
मुर्मी कहते हैं, ‘लोग खेल और इसमें जीत को लेकर भावनात्मक रूप से ऐसे जुड़ जाते हैं कि कभी-कभी अपनी टीम की जीत के लिए आदिवासी रीति-रिवाजों के अनुसार पूजा का आयोजन भी करते हैं।’
यह खेल इतना आसान भी नहीं है। खिलाड़ी के अंदर अपनी बांस की छड़ी को पकड़ने और उसे जोर से मारने का कौशल आना चाहिए। कटी को उसके सही स्थान पर जोर से मारना पड़ता है, ताकि वह अपने क्षेत्र से बाहर निकलकर सटीक स्थान पर पहुंच सके। ऐसा कौशल हासिल करने के लिए कड़े अभ्यास की जरूरत होती है।
इस खेल के शानदार खिलाड़ी पुदुपानी गांव के रहने वाले रंगनाथ हंसदा भी यही बात कहते हैं, ‘खिलाड़ी के पास बांस की छड़ी से कटी को मारने के लिए तेज दृष्टि और पैरों में ताकत होनी चाहिए, ताकि वह एक ही बार में दूर जा सके। अपनी बांस की छड़ी पर भी खिलाड़ी की पकड़ बहुत मजबूत होनी चाहिए। वह उसे ऐसे कसकर और चतुराई से मारे कि निशाना चूके नहीं। इसके लिए नियमित अभ्यास की आवश्यकता है, जो आजकल के खिलाड़ियों में देखने को नहीं मिलता।’
बारीपदा स्थित संथाली कला और फिल्म फाउंडेशन के संस्थापक-अध्यक्ष दीपक बेशरा कहते हैं, ‘हम न केवल आदिवासी रंगमंच, फिल्मों और पारंपरिक संगीत को बढ़ावा देना चाहते हैं, बल्कि कटी जैसे पारंपरिक खेलों को भी दोबारा फलता-फूलता देखना चाहते हैं, लेकिन हमें इन्हें पुनर्जीवित करने जैसी बड़ी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाने के लिए व्यापक सहयोग और धनराशि की आवश्यकता है, लेकिन सरकार में उच्च पदों पर बैठे लोग हमारी बात सुनने के लिए तैयार नहीं हैं।’
खिलाड़ियों और संस्थाओं की उदासीनता के शिकार कटी खेल को सरकार ने भी उसके हाल पर छोड़ दिया है, जबकि कबड्डी, हॉकी, फुटबॉल, तीरंदाजी, क्रिकेट वॉलीबॉल जैसे कई अन्य खेलों को सरकारी स्तर पर खूब प्रोत्साहित एवं प्रचारित किया जा रहा है।
इसी तरह, मयूरभंज जिले के ज़्यादातर खेल क्लब भी कटी की ओर से मुंह मोड़ रहे हैं। मयूरभंज के जिला खेल अधिकारी अबानी मोजंती से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि कटी और अन्य आदिवासी पारंपरिक खेलों को बढ़ावा देने की सख्त जरूरत है, जो काम अभी नहीं हो रहा है।
हालांकि उन्होंने कहा, ‘हम जल्द ही अपने जिले की खेल प्रतियोगिताओं की सूची में कटी जैसे आदिवासी पारंपरिक खेलों को शामिल करने के लिए कदम उठाएंगे। यही नहीं, इन खेलों को दोबारा लोकप्रिय बनाने के लिए विस्तृत योजना तैयार करेंगे।’