छतरपुर/दमोह (मध्य प्रदेश)
अपनी शानदार कला और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड क्षेत्र में घूमते समय दीवारों, दरवाजों और खिड़कियों के आसपास बने आकर्षक भित्तिचित्रों से सजे घर खूब दिखाई दे जाएंगे। खासकर आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे घर यहां रहने वालों की सांस्कृतिक एवं रचनात्मक समृद्धि की गवाही देते हैं।
आदिवासी समुदाय भील बहुल दमोह में ऐसे ही भित्तिचित्रों से सजा दिखता है सूरज का घर। बहुत ही आकर्षक। ये खूबसूरत चित्र सूरज की पत्नी उमा ने दिवाली के मौके पर बनाए हैं। सूरज के ही गांव की रहने वाली सुक्का नाम की महिला बताती है कि मिट्टी की दीवारों को साफ करने और प्लास्टर करने के बाद उन पर पेंटिंग बनाई जाती है। इसके लिए बाजार से रंग खरीदे जाते हैं। लकड़ी के काले दरवाजे के सामने चारपाई पर आराम फरमाते मुर्गे और मुर्गी की तस्वीर, जिसके चारों तरफ गुलाबी रंग के भित्तिचित्रों से सजावट की गई है, बहुत ही खूबसूरत और जीवंत लगती है।
छतरपुर जिले की एक तहसील बिजावर में भी इसी तरह के भित्तिचित्र जगह-जगह दीवारों पर दिखाई देते हैं। इस जिले में मध्य भारत की खानाबदोश जनजाति राजगोंड की काफी आबादी है।
भोपाल स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में काम करने वाले सूर्या पांडे ने The Indian Tribal को बताया कि इस तरह के भित्तिचित्र क्षेत्र के आदिवासी त्योहारों के मौकों पर खूब बनाते हैं। घरों को सजाने के लिए यह उनकी बहुत ही सामान्य परंपरा है। यह इस बात को भी साबित करता है कि गरीबी और जल संकट जैसे मुद्दों से दो-चार होने के बावजूद आदिवासी लोग अपनी कलात्मक प्रतिभा को बाहर निकालने के लिए समय निकाल ही लेते हैं।
छतरपुर और दमोह के गांवों के अलावा खजुराहो और उसके आसपास के क्षेत्रों में भी सफेद दीवारों पर उभरे भित्तिचित्र या मिट्टी से की गई चित्रकारी खूब देखने को मिलती है। खजुराहो से करीब 25 किलोमीटर दूर माडला के पास टोरिया गांव में दीवारों पर मिट्टी से बनी ऐसी कलाकृतियां किसी का भी मन मोह लेती हैं। ये ऐसी बनी होती हैं कि उंगलियों से आसानी से महसूस किया जा सकता है। ये आकृतियां मुख्य रूप से मोर और सूअर जैसे जानवरों और पक्षियों के साथ-साथ कुछ अलग तरह के डिजाइनों में होती हैं।
स्थानीय निवासी दीनदयाल यादव ने कहा, ‘दीवारों पर उकेरी जाने वाली इस कला का वैसे तो कोई खास नाम नहीं है, लेकिन अमूमन इसे यहां खेल-खिलौना कहा जाता है। महिलाएं इसे अपने हाथों से बनाती हैं।’ खजुराहो में लगभग एक साल पहले खोले गए आदिवर्त संग्रहालय में इस तरह की कलाकृतियां उकेरी गई हैं, जिस कारण ये अब क्षेत्र में दोबारा लोकप्रिय हो रही हैं।
भोपाल में आदिवासी संग्रहालय के क्यूरेटर अशोक मिश्रा बताते हैं कि संग्रहालय आदिवासी कला को प्रमुखता से प्रदर्शित करता है, ताकि दुनिया भर के पर्यटक यहां आएं और मध्य भारत खासकर बुंदेलखंड की समृद्ध आदिवासी विरासत को देखकर आनंद की अनुभूति कर सकें।
अशोक मिश्रा ने The Indian Tribal के साथ बातचीत में बताया, ‘इस क्षेत्र में दीवारों पर मिट्टी की नक्काशी आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों ही वर्गों के लोग करते हैं। ये भित्तिचित्र दीवारों पर बनाई गई पहली मानवीय अभिव्यक्तियों में से एक हैं। पूर्व के जमाने में लोग इन्हें फर्श पर बनाते थे, लेकिन वहां से बहुत जल्द मिट जाया करते थे। इसलिए लोगों ने दीवारों को कैनवास की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इससे भित्तिचित्र बनाने की कला लंबे समय तक टिकी रहने लगी और दीवारें भी सुंदर लगने लगीं।
अगर लोग सरकारी योजनाओं की मदद से पक्के मकान बनवाते हैं, तो फर्श और दीवारों पर कई कलाएं और भित्तिचित्र नहीं बनाते। इससे पारंपरिक रूप से दिखाई देने वाली इस कला के लुप्त होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। मिश्रा का मानना है कि भले ही विकास जरूरी प्रक्रिया है, लेकिन ऐसी कला को हर कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए। आदिवर्त संग्रहालय का उद्देश्य यही है।
पानी की कमी और उच्च पलायन दर के लिए कुख्यात इस सूखे क्षेत्र में कई आदिवासी परिवारों को रबी सीजन में दूसरी फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और उन्हें सिंचाई सुविधाओं के लिए मदद दी जाती है ताकि वे अपना घर-बार छोड़ कर न जाएं। कुछ लोग फल उगाकर भी अतिरिक्त आय अर्जित कर रहे हैं। गैर-लाभकारी संस्था हरितिका छतरपुर और दमोह जैसे जिलों में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और जल संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए शिद्दत से काम कर रही है।
दमोह के सूरजपुरा गांव के रहने वाले दिनेश आदिवासी कहते हैं कि पहले वे पानी की कमी के कारण रबी में गेहूं नहीं बो पाते थे। केवल खरीफ में बारिश का सहारा मिलता था तो वह मक्का की फसल उगाते थे। हालांकि, वह कहते हैं कि अब धीरे-धीरे चीजें बदल रही हैं।