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Home » द इंडियन ट्राइबल / हिंदी » विविध » क्या वाकई इस पहाड़ पर चढऩे से 10 साल बढ़ जाती है जवानी और उम्र?

क्या वाकई इस पहाड़ पर चढऩे से 10 साल बढ़ जाती है जवानी और उम्र?

इस 500 फीट ऊंची पहाड़ी से जुड़ी यही लोकप्रिय मान्यता हर साल सर्दियों के दौरान आदिवासियों को यहां खींच लाती है। क्या जवान क्या बूढ़े सभी का यहाँ लग जाता है जमघट, बता रहे हैं सुधीर कुमार मिश्रा

April 2, 2023
सुकवन बुरु पर्वत पर मेले में एकत्र आदिवासी युवक युवतियां

सुकवन बुरु पर्वत पर मेले में एकत्र आदिवासी युवक युवतियां

रांची

दिसंबर के महीने में पूर्णिमा की रात के नौ दिन बाद आदिवासी, विशेष रूप से मुंडा समाज के लोग, झारखण्ड के खूंटी जिले के मारनघड़ा पंचायत में सुकवन बुरु पर्वत पर एकत्र होते हैं और पूजा अर्चना करते हैं। जिला मुख्यालय से लगभग 40 किमी पूर्व और राजधानी रांची से 64 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस पर्वत पर सदियों से यह परम्परा चली आ रही है।आदिवासियों की मान्यता है कि पर्वत भगवान यानी सुकवन बुरु बोंगा ही उनकी सभी जरूरतों का ख्याल रखते हैं और सभी तरह के प्राणियों के सह-अस्तित्व को बढ़ावा देते हैं। सुकवन बुरु को एक तरह से तीन गांवों- दुलमी, तोतादा और सुकवंडीह का मिलन बिंदु भी कह सकते हैं।

इस पर्वत के बारे में एक लोकप्रिय मान्यता यह है कि जो व्यक्ति इस पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाता है, उसकी उम्र दस साल बढ़ जाती है या वह दस साल और जवान रह सकता है। हालांकि संयोग से इस पहाड़ पर चढ़ाई कोई बहुत मुश्किल नहीं है। किसी भी उम्र के लोग इस पर आसानी से चढ़ सकते हैं। यही वजह है कि कभी विदेशी आक्रमणकारियों, जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ विद्रोह के दौरान मुंडा योद्धाओं की सामरिक चौकी के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली पहाड़ी आदिवासियों को आकर्षित करती है।

जब सूरज ढलने लगता है तब लोग पहाड़ी से वापस अपने घरों को जाना शुरू करते हैं
जब सूरज ढलने लगता है तब लोग पहाड़ी से वापस अपने घरों को जाना शुरू करते हैं

कई इतिहासकारों और मानव शास्त्रियों का मानना है कि इस गांव के मूल निवासी इस पहाड़ की चोटी पर डेरा डाले रहते थे ताकि मैदानी इलाकों में घूमते अपने दुश्मनों की हर गतिविधि पर नजर रख सकें। यही नहीं, वे विदेशी आक्रमणकारियों से अपनी जमीन और संस्कृति को बचाने के लिए इसी पहाड़ पर बैठकर रणनीति तैयार करते थे। एक तरह से कहा जाए तो सुकवन बुरु पर्वत मुंडा योद्धाओं के सबसे महत्वपूर्ण आधार शिविरों में से एक था।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के मानवशास्त्र (नृविज्ञान) के शिक्षक एवं लुप्तप्राय भाषाओं के अंतरराष्ट्रीय प्रलेखन केंद्र के निदेशक डॉ. अभय सागर मिंज ने बताया कि यह पर्वत इसलिए भी बहुत पवित्र माना जाता है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि क्षेत्र में वर्षा इसी पर्वत के कारण होती है। पर्वत हवाओं की गति को नियंत्रित कर उन्हें ऊपर की ओर जाने के लिए बाध्य करते हैं, अंतत: जिससे वर्षा होती है।

युवाओं की जवानी दस साल और बरकरार रहने के सवाल पर The Indian Tribal से बात करते हुए डॉ. अभय कहते हैं कि यह तो प्राकृतिक रूप से होगा ही। वह तर्क देते हैं कि यह पर्वत 500 फीट ऊँचा है और इस ऊंचाई को पार कर चोटी पर वही व्यक्ति पहुंच सकता है जो स्वभाविक रूप से शारीरिक तौर पर फिट होगा और, फिट वह होगा जो नियमित रूप से व्यायाम करेगा। जो व्यक्ति इस पहाड़ की चोटी पर दोबारा आने की तमन्ना रखता है, उसे अपने आप को तंदरुस्त रखना ही होगा।

1982 की घटना का ज़िक्र इस पत्थलगड़ी पर वर्णित है

यहां पाहन और पुजारा (आदिवासी पुजारी) के अनुष्ठान के साथ बहुत सवेरे से उत्सव शुरू हो जाता है। यहां आने वाले भक्त आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि भी देते हैं। उन शहीदों के नाम यहां पत्थलगढ़ी में खुदे हुए हैं। मालूम हो कि वर्ष 1982 में इस पहाड़ के ऊपर एक टावर लगाने का विरोध करते हुए सैकड़ों आदिवासी सरकारी तंत्र से भिड़ गए थे।

पारंपरिक पूजा अनुष्ठान के बाद पूरे दिन मेला लगता है। इस मेले में दूर-दराज के क्षेत्रों से लोग अपने परिवारों के साथ आते हैं और उत्सव मनाते हैं। यूं तो कई स्थानीय परंपराएं यहां निभाई जाती हैं, लेकिन पतंगबाजी इस मेले का मुख्य आकर्षण होती है।

अलग-अलग तरह की रंग-बिरंगी छोटी-बड़ी पतंगें उड़ाई जाती हैं। ये सभी पतंगे स्थानीय स्तर पर ही बनाई जाती हैं। एक से बढक़र एक शौकीन कलाकार पतंगबाजी में हिस्सा लेते हैं। वे पतंग उड़ाने के लिए पेड़ों पर पाये जाने वाले चिपचिपे पदार्थ और घास से निर्मित मांझे का इस्तेमाल करते हैं। यहां उड़ाई जाने वाली पतंगे अलग-अलग आकार की होती हैं। कई तो पतंगबाज की ऊंचाई से भी अधिक बड़ी होती हैं।

विशेषज्ञ बताते हैं कि पतंगबाजी तो खूब होती है, लेकिन यहां कोई प्रतियोगिता नहीं होती है। कोई किसी की पतंग नहीं काटता। शौक में ही पतंगबाज अपने जौहर दिखाते हैं। मेले में कई पारंपरिक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं, लेकिन इनमें भी कोई मुकाबला नहीं होता। ऐसी मान्यता है कि यह मिलन, यह उत्सव सभी लोगों और जीवों के सह-अस्तित्व का त्योहार है, जिसे उसी भावना के साथ मनाया जाता है।

डॉ. राम दयाल मुंडा ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक रणेंद्र कुमार ने The Indian Tribal को बताया कि अब इस मेले और पूजा-अनुष्ठान का दायरा काफी बढ़ गया है। पहले, बुरु बोंगा (पर्वत) भगवान की पूजा के लिए मुख्य रूप से मारनघड़ा पंचायत के तीन गांवों में रहने वाले मुंडा समाज के लोग ही एकत्र होते थे, लेकिन अब तो रांची, खूंटी, गुमला और सिमडेगा जैसे आसपास के जिलों के मुंडा भी इस उत्सव में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं। मेले में भारी भीड़ जुटती है। पिछले साल का उत्सव 16 दिसंबर को मनाया गया था। आदिवासी पूरी सर्दियों के दौरान इस पहाड़ी पर चढ़ते और पूजा-अनुष्ठान करते हैं।

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The Indian Tribal is India’s first bilingual (English & Hindi) digital journalistic venture dedicated exclusively to the Scheduled Tribes. The ambitious, game-changer initiative is brought to you by Madtri Ventures Pvt Ltd (www.madtri.com). From the North East to Gujarat, from Kerala to Jammu and Kashmir — our seasoned journalists bring to the fore life stories from the backyards of the tribal, indigenous communities comprising 10.45 crore members and constituting 8.6 percent of India’s population as per Census 2011. Unsung Adivasi achievers, their lip-smacking cuisines, ancient medicinal systems, centuries-old unique games and sports, ageless arts and crafts, timeless music and traditional musical instruments, we cover the Scheduled Tribes community like never-before, of course, without losing sight of the ailments, shortcomings and negatives like domestic abuse, alcoholism and malnourishment among others plaguing them. Know the unknown, lesser-known tribal life as we bring reader-engaging stories of Adivasis of India.

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