नयी दिल्ली
भारतीय पुलिस सेवा में रहकर मुझे पंजाब में आतंकवाद और झारखंड में नक्सलवाद के खिलाफ काम करने का अनुभव रहा है । मेरा सौभाग्य है कि पिछले 10 वर्षों से झारखंड में रहकर आदिवासी बच्चों के बीच शिक्षा के क्षेत्र में काम करने का मौका मिला है।
हम आदिवासियों की सबसे बड़ी चुनौती अपनी पुरखों की दी हुई बेशकीमती जमीन की रक्षा करना और उसे बचाना है । जिस तरीके से भूमि माफिया, बिल्डर, कॉन्ट्रैक्टर, स्थानीय प्रशासन, पुलिस एवं लैंड रेवेन्यू विभाग के अधिकारी, कर्मचारी राज्य सरकार के शह पर आदिवासियों की रैयती एवं सामाजिक धार्मिक जमीन पर उन्हें बेदखल कर कब्जा कर रहे हैं ऐसा लगता है कि आदिवासियों का इन इलाके से नामोनिशान मिट जाएगा।
आदिवासियों के जमीन का सुरक्षा कवच समझे जानेवाले छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (CNT Act) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (SPT Act ) जैसे तमाम नियम कानून की धज्जियां उड़ाते हुए , फर्जी कागजात के बल पर पुलिस अथवा गुंडों बदमाशों के दबाव में आदिवासियों को उनकी जमीन से जबरन बेदखल किया जा रहा है। चंद पैसों के लालच में हमारे अपने भाई बेटे इन भूमाफिया के हाथों बिक जा रहे है।

रांची राजधानी में मुहल्ले के मुहल्ले गैर आदिवासियों के कब्जे में गैरकानूनी तरीके से चले गए जहां बड़े बड़े भवन अट्टालिकाएं खड़ी हो गई । और ये सिलसिला शहरों से निकलकर सुदूर गाँवों में शुरू हो गया है जहां गरीब आदिवासी युवती को एक विशेष समुदाय के लोग साजिशन चौथी पांचवीं पत्नी बना कर आदिवासी जमीन की बड़े पैमाने पर खरीद बिक्री कर रहे हैं। यही नहीं आदिवासी आरक्षित मुखिया एवं पंचायत प्रतिनिधियों की सीटों पर इन्हीं महिलाओं के मार्फत यह समुदाय हमारी राजनीति पर भी काबिज हो रहा है ।
जिस परिवार ने हिम्मत दिखाकर कोर्ट कचहरी में अपना दावा पेश किया और उनपर अदालत ने दख़लदिहानी का आदेश दिया वैसे हजारों केस पर प्रशासन वर्षों से कब्जा दिलाने में असमर्थ रहा है । जमीन के असली मालिक अपनी ही जमीन पर नौकर बन गए या भुखमरी से मर खप गए हैं । गैर कानूनी तौर पर कब्ज़ा किए गए आदिवासी एवं गैरमजरुआ जमीन की ऑडिट को राज्य सरकार द्वारा रोक दिया गया है जिससे सच्चाई सामने न आ सके।
भारी संख्या में गैर आदिवासियों द्वारा गैरकानूनी रूप से बसने के कारण पूर्व के आदिवासी बाहुल इलाके में आदिवासी अल्पसंख्यक बन गए हैं । डीलिमिटेशन (Delimitation) के लागू होने पर झारखंड के 28 आरक्षित विधान सभा की सीटें घट कर 15 -16 या इससे भी कम रह जाएंगी । लोक सभा की सीटों का भी ऐसा ही हाल होने वाला है। तब जिन आदिवासियों के संरक्षण और संवर्धन के लिए यह राज्य बना था उनका राजनीतिक प्रभाव और अस्तित्व कितना और क्या रह जाएगा यह आप और हम सोच सकते हैं ।

अनुसूचित क्षेत्रों (Scheduled Areas) में राज्यपाल महोदय ही आदिवासियों के जमीन के कस्टोडियन होते हैं । राज्य सरकार द्वारा उनकी शक्तियों को कमजोर किया जा रहा है । केंद्र द्वारा 1996 में बना पेसा (पेसा) कानून, जिसकी आत्मा में ग्राम सभा का सशक्तिकरण है, वो अब तक लागू नहीं किया जा सका है ।
भगवान बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, सिद्धू कान्हू, फूलों झानो, बुधू भगत, महारानी दुर्गावती, सिनगी दई जैसे महापुरुषों एवं वीरांगनाओं के इतिहास को आपसे बेहतर कौन जानता है । महामहिम, आप से हाथ जोड़ कर विनती है कि अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर समय रहते इस गंभीर मुद्दे का न्यायपूर्ण हल निकाला जाये ।
(यह डॉ अरुण उरांव के व्यक्तिगत विचार हैं)