रायपुर
बांस को हरा सोना क्यों कहा जाता है, यदि इस वाक्यांश का अर्थ समझना है तो छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार जिले के कमार जनजाति बहुल गांव बलदाकछार आना होगा। रोजमर्रा की जिंदगी में अनेक कामों में उपयोग के कारण ही बांस को हरा सोना कहा जाता है और इसे यहां के आदिवासी लोगों ने सच साबित कर दिखाया है।
कमार विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह PVTG (पीवीटीजी) है यानी आर्थिक मोर्चे पर यह जनजाति बेहद पिछड़ी है। बैगा की तरह ही ये लोग मध्य भारत में घने जंगलों वाले पहाड़ों में रहते हैं।
दोपहर का समय है और फुलेश्वरी कमार की फुर्तीली उंगलियां बांस से कोई वस्तु बना रही हैं। वह अपना चेहरा ऊपर उठाती हैं और पास आने पर मुस्कुरा देती हैं। यह आदिवासी महिला बांस से टोकरियां, हाथ के पंखे और सूप (फसल उठान के बाद धान को छानने के लिए इस्तेमाल होने वाली चपटी ट्रे जिसे उत्तर भारत में छाज भी कहा जाता है) बुनकर अपना जीवन यापन करती है। वह स्वयं सहायता समूह SHG (एसएचजी) हंस वाहिनी से जुडक़र काम रही हैं। इस समूह में कुल 11 सदस्य हैं। गांव में दो अन्य ऐसे ही समूह हैं- वीणा वादिनी और ज्ञान वाहिनी भी आदिवासियों के बीच काम कर रहे हैं। वे 2020 से आजीविका चलाने के लिए बांस शिल्प में लगे हैं।
फुलेश्वरी ने The Indian Tribal से बात करते हुए कहा, ‘बलदाकछार की महिलाएं वर्षों से बांस से घरेलू इस्तेमाल में आने वाले सामान बना रही हैं। मैं आमतौर पर वन विभाग के डिपो या कभी-कभी सीधे किसानों से बांस खरीदती हूं। बांस से बनी वस्तुओं को बेचकर मैं हर महीने लगभग 3000 रुपये कमा लेती हूं। कभी-कभी व्यापारी सामान खरीदने के लिए गांव आते हैं और कभी ऐसा भी होता है कि हम स्वयं ही उत्पाद लेकर अपने निकटतम साप्ताहिक बाजार चले जाते हैं।’


डिपो वाला बांस थोड़ा सस्ता मिल जाता है। इसे वन विभाग संग्रहीत करके रखता है और जरूरत के हिसाब से आदिवासियों को सस्ते दामों में बेचता है। यहां एक बांस की कीमत लगभग 40 रुपये होती है। इतने बड़े बांस के लिए किसान कभी-कभी दोगुनी कीमत वसूल लेते हैं। बांस के दो टुकड़ों में एक टोकरी तैयार हो जाती है। हाथ के पंखे में एक ही बांस काम कर जाता है, जबकि झाड़ू बनाने में तीन बांस लगते हैं। ग्रामीण आबादी को ध्यान में रखते हुए सामान की कीमत नाममात्र रखी गई है। क्योंकि जिस तरह इस सामान को बनाने वाले बेहद गरीब तबके के लोग हैं तो खरीदार भी लगभग उसी आर्थिक स्थिति वाले वर्ग के होते हैं। बेहतरीन कसीदाकारी के साथ बनाया गया हाथ का पंखा 100 रुपये प्रति पीस बिकता है, जबकि सूप की कीमत 150 रुपये होती है। कुछ सामान तो ऐसा होता है, जो बहुत कम समय या कुछ ही घंटों में बनाया जा सकता है लेकिन काफी सामान ऐसा भी होता है जिसे तैयार करने में कई-कई दिन लग जाते हैं।
आजीविका का जरिया
जिस तरह तमाम आदिवासी महिलाएं आजीविका कमाने के लिए वन संसाधनों पर निर्भर रहती हैं, बलदाकछार की कमार जनजाति की महिलाओं की कहानी भी उनसे अलग नहीं हैं। बांस की वस्तुओं के अलावा वे कांटा झारू भी बनाती हैं। इसे बनाने में एक प्रकार की घास इस्तेमाल होती है जो धान के खेतों में उगती है और फसल कटाई के बाद उसे एकत्र किया जाता है। एक झाड़ू 70 रुपये में बिकती है। इस झाड़ू को बनाने में काफी मेहनत और समय लगता है। महिलाएं पहले खेतों से कच्चा माल जुटाती हैं, उसे संग्रहीत करती हैं और पूरे साल झाड़ू बनाती हैं। झाड़ू को सुखाने के लिए छतों पर रखा जाता है।

गांव में घूमने से पता चला है यहां कमार टोले में कई पक्के घर हैं। एक घर के सामने महिला बीड़ी बनाने के लिए पत्ते तैयार कर रही है। दो महिलाएं लाख के साथ काम कर रही हैं, जो कि गैर-लकड़ी वन उत्पाद और प्राकृतिक राल होती है। इसका उपयोग चूडिय़ां बनाने के लिए किया जाता है। आगे चलकर देखते हैं तो दो महिलाएं हाथों से लाख राल को अलग कर रही हैं जिसे वे बाजार में बेचेंगीं ताकि कारिगर इसका इस्तेमाल चूड़ियां बनाने में कर सकें।
राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से जुड़ी सुनीता साहू इस गांव की महिलाओं के साथ मिलकर उनके हुनर को निखारने, उत्पाद की बेहतर कीमत दिलाने जैसे तमाम कामों में उनकी मदद करती हैं। वह बताती हैं कि एक किलो लाख 500 रुपये में बिकता है।
सरकारी सहायता का सहारा
मनरेगा की कार्यक्रम अधिकारी चंचल वर्मा कहती हैं कि चूंकि बलदाकछार एक पीवीटीजी श्रेणी में आने वाला गांव है, इसलिए यहां के लोगों को ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत पीएम जनमन के तहत घर दिए गए हैं। 2024-25 में पीएम जनमन के तहत कुल 25 घरों को मंजूरी दी गई है। कमारों के पास जमीन नहीं है। हां यहां के कुछ लोगों को सरकारी दफ्तरों में नौकरी जरूर मिली है।

वर्मा के अनुसार बलदाकछार के लोगों को मनरेगा के तहत काम दिया जाता है। कुछ लाभार्थियों को बकरी और मुर्गी पालन के लिए शेड दिए गए हैं। यह काफी बड़ा गांव है, लेकिन कमार जनजाति के लोगों की आबादी बहुत छोटी है। लंबे समय से इस गांव में रहने वाले कमार लोगों को सरकार की ओर से घर दिए गए हैं।

सुनीता साहू बलोदा बाजार में पूरे बोरसी क्लस्टर की देखभाल करती हैं। बलदाकछार गांव भी इसी क्लस्टर का हिस्सा है। वह बांस से बनी वस्तुओं को बेचने में मदद करती हैं, क्योंकि ये एनआरएलएम के तहत पारंपरिक वस्तुएं होती हैं। बांस से बनी एक बड़ी गोल वस्तु को पर्रा कहा जाता है, जिसका उपयोग शादियों के दौरान खासकर हल्दी समारोह में किया जाता है। कभी-कभी पर्रा की सुंदरता को बढ़ाने के लिए इस पर बरगंडी रंग का उपयोग किया जाता है। महिलाओं को बांस से सामान बनाने में नए-नए प्रयोग करने और उन्हें ये वस्तुएं बाजार में बेचकर आजीविका जुटाने में स्वयं सहायता समूह महती भूमिका निभा रहे हैं।