बुरहानपुर
अन्य महिला की तरह वह भी घर में बेटी, पत्नी, बहू और मां यानी सभी भूमिकाओं को बखूबी निभाती हैं, लेकिन एक वन रक्षक के रूप में वह समाज की बाकी महिलाओं से अलग खड़ी दिखती हैं। हर शाम सूर्यास्त के बाद उनकी ड्यूटी शुरू होती है और वह बुरहानपुर के जंगली जानवरों, अतिक्रमणकारियों और लकड़ी माफिया से प्रभावित घने जंगलों में रात्रि गश्त के लिए निकल जाती हैं।
रूपा मुडिया की दिनचर्या पिछले 20 वर्षों से इसी तरह चल रही है। वर्ष 2004 में बुरहानपुर जिले में पोस्टिंग के बाद से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक जारी है। उन्होंने संघर्ष का एक ऐसा रास्ता चुना, जिस पर चलने की हिम्मत बहुत कम महिलाएं कर पाती हैं।
रूपा ने The Indian Tribal को बताया, ‘वर्ष 2004 से 2018 तक मेरी ड्यूटी हर रोज रात्रि गश्त के लिए लगती थी। जब मैं विशेष ड्यूटी पर होती तो मेरी जिम्मेदारी वन क्षेत्रों में लकड़ी का अवैध कटान और अतिक्रमण रोकने की थी। वर्ष 2018 के बाद मैं बीट में शामिल हो गई। उसके बाद से जरूरत के हिसाब से मेरी ड्यूटी दिन और रात कभी भी लग सकती है। अधिकारी मेरे काम में बहुत सहयोग करते हैं।’
रूपा के समक्ष बहुत सी चुनौतियां होती हैं। उनकी ड्यूटी खतरे से भरे संवेदनशील क्षेत्र में रहती है। यह इलाका रेंज कार्यालय से 13 किलोमीटर दूर है, जहां पक्की सडक़ें भी नहीं हैं। रास्ते पथरीले और उबड़-खाबड़ हैं। थोड़ी सी बारिश में इनकी हालत ऐसी हो जाती है कि इन पर चलना दूभर हो जाता है। जंगली जानवरों की बहुतायत वाले इस क्षेत्र में फोन नेटवर्क भी लगभग गायब रहता है। यहां रूपा बाइक से यात्रा करती हैं।
वह बताती हैं, ‘रात में यदि मुझे वापस कार्यालय आना होता है, तो मैं सरकारी वाहन से ही आती हूं। रात में अकेले बाइक से सफर करना मुनासिब नहीं होता। क्योंकि, यदि कभी रास्ते में बाइक खराब हो गई तो मैं मानव बस्तियों से बहुत दूर जंगलों में अकेली फंस सकती हूं। दूर-दूर तक कोई मदद करने वाला भी नहीं मिलेगा।’
रूपा के पिता नहीं हैं। दादा ने उनकी शादी महज 14 साल की उम्र में एक किसान परिवार के लडक़े से कर दी थी। अब उनके दो बेटे हैं, एक 12 और दूसरा 22 साल का। रूपा ने 12वीं कक्षा तक नरसिंहपुर के गांव में पढ़ाई की है। उसके बाद उनकी नौकरी लग गई। इसलिए वह आगे पढ़ नहीं सकीं। उनके ससुराल वालों ने उनकी 12वीं तक की पढ़ाई में काफी सहयोग किया। वह अब अपनी मां के साथ सरकारी क्वार्टर में रहती हैं।
हालांकि कई बार उन्हें खतरों का सामना करना पड़ा और हर बार वह किसी तरह बच निकलीं, लेकिन इस सब के बावजूद वह डरी नहीं और अपने कर्तव्यों से पीछे नहीं हटीं। वह बताती हैं, ‘मेरे हाथ में चोट भी लगी है। बहुत से लोग जमीन के लालची होते हैं। मैं उन्हें प्यार से समझाने की कोशिश करती हूं, लेकिन कभी-कभी सख्ती बरतनी पड़ती है।’
वह इतनी साहसी हैं कि एक बार विभाग के कर्मचारियों पर अतिक्रमणकारियों ने हमला कर दिया। बहुत बहादुरी से सामना करते हुए वह अपने सहयोगियों को बचाने में कामयाब हो गईं। इसके लिए उन्हें 2019 में भोपाल में सम्मानित भी किया गया। वह बताती हैं, ‘मैंने कई लोगों की जान बचाई और अंत में गिरकर घायल हो गई। वह जगह ऐसी थी, जहां मुख्य रास्ते तक आने के लिए हमें 500 मीटर तक पैदल चलना ही पड़ता था। इसी सुनसान जगह पर हमें अचानक कई लोगों ने घेर लिया। गनीमत यह रही कि उस भीड़ में से कुछ लोगों ने मुझे पहचान लिया और वे भाग खड़े हुए।’
पिछले तीन वर्षों से बुरहानपुर में पदासीन रेंजर सचिन सिंह भी रूपा की खूब प्रशंसा करते हैं। उनका कहना है कि रूपा को वन रक्षक की नौकरी पर इसलिए रखा गया, क्योंकि उन्हें स्थानीय मामलों की अच्छी समझ है। सिंह ने The Indian Tribal से बातचीत में बताया, ‘वह स्थानीय लोगों के साथ अच्छी तरह घुल-मिलकर बातचीत कर लेती हैं। जंगलों में वन रक्षकों के लिए ऐसे गुण बहुत ही आवश्यक हैं। एक महिला होने के बावजूद उन्हें अपराधियों से मुकाबला करने में डर नहीं लगता। खास बात, वह बहुत ही ईमानदार भी हैं। वन समिति के सदस्य उन्हें काफी पसंद करते हैं और स्थानीय लोगों में भी उनकी पैठ है। सब उनका सम्मान करते हैं।’
सचिन सिंह कहते हैं, ‘यहां बहुत सी चुनौतियां हैं। हमें पूरी सतर्कता और जिम्मेदारी से गश्त करना होता है। बाहरी लोग खेती के लिए पेड़ों को काटने की कोशिश करते हैं। मानसून से पहले ऐसी घटनाएं बहुत अधिक बढ़ जाती हैं। अतिक्रमण के अलावा, पेड़ों की अवैध कटाई यहां बड़ा मुद्दा है। रसोई के लिए सूखी लकडिय़ां इक_ा करने आने वाले ग्रामीणों को भी इस बात के लिए सतर्क किया जाता है कि यदि उन्हें कोई भी संदिग्ध गतिविधि नजर आए तो वे फौरन इसकी सूचना दें।’
रूपा के काम में लगभग 10 स्थानीय लोग सहयोग करते हैं। वह कहती हैं, ‘बुरहानपुर की सीमा महाराष्ट्र से लगती है। आजकल अनेक युवा जंगल और वन्यजीवों के महत्व के बारे में जागरूक हो गए हैं। विभाग की सतर्कता और स्थानीय लोगों की जागरूकता के चलते लकड़ी कटान पर काफी हद तक नियंत्रण लग गया है, लेकिन कुछ लोग हैं जो अभी भी समस्याएं पैदा करते हैं।’
रूपा बताती हैं कि कई बार दूसरे इलाके के लोग जंगल के अंदर घुस आते हैं और अतिक्रमण कर लेते हैं। ऐसे लोग खरगोन जैसे जिलों से आते हैं। मैं अपना कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश करती हूं और उन्हें जंगल के महत्व के बारे में समझाती हूं। लोग मक्का जैसी फसलें उगाने के लिए जंगलों में अतिक्रमण करते हैं।
बरेला और भिलाला आदिवासी समुदायों वाला बुरहानपुर पिछले साल अवैध अतिक्रमण और वनों की कटाई के कारण खूब खबरों में छाया रहा। बुरहानपुर के अलावा, मध्य प्रदेश का सेंधवा वन प्रभाग भी अतिक्रमण करने वालों पर छापामार कार्रवाई के चलते सुर्खियों में था। वन विभाग के अधिकारियों ने लकड़ी काटने वाली मशीनें, सागौन और फर्नीचर आदि जब्त किया था।
भारत दुनिया के शीर्ष 10 वन-समृद्ध देशों में शामिल है। हालांकि वन कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं और जलवायु परिवर्तन को रोकते हैं, फिर भी वनों की कटाई बहुत ही चिंताजनक दर से हो रही है। इस कटान का प्रमुख कारण लकड़ी का अवैध व्यापार है।
देश के कई हिस्सों में माफिया लकड़ी का अवैध कारोबार कर रहे हैं। वन विभाग द्वारा उचित निगरानी की कमी के कारण कोविड-19 के दौरान इन माफिया का व्यापार नेटवर्क खूब फैला। आपराधिक गतिविधियों पर नजर रखने और इस अवैध कार्य को रोकने के लिए सबसे बड़ी अड़चन वन कर्मचारियों की कमी है।
चूंकि मध्य प्रदेश राष्ट्रीय राजमार्ग के माध्यम से महाराष्ट्र से जुड़ा हुआ है, इसलिए यहां अंतरराज्यीय व्यापार खूब फलता-फूलता है। महाराष्ट्र के एक वन अधिकारी ने कहा, ‘कभी-कभी यहां से लकड़ी अवैध रूप से राजस्थान और दिल्ली-एनसीआर तक भी भेजी जाती है।’