भुवनेश्वर
छोटे से किसान के बेटे ने कभी ख्याल भी नहीं किया होगा कि वह एक दिन वैज्ञानिक बन सकते हैं। उन्होंने तो अपनी मेहनत से डॉक्टर वह भी डेंटल सर्जन बनने का ख्वाब देखा था। आज वह वैज्ञानिक के तौर पर नई-नई खोज कर रहे हैं। आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले के कुदुंबा गांव में जन्मे 40 वर्षीय डॉ. प्रसाद चंद्र टुडू की कहानी कुछ ऐसी ही है। उनका पालन-पोषण अपने नाना के गांव जनमघुटु में हुआ।
वर्ष 2001 में मयूरभंज के सालबनी में जवाहर नवोदय विद्यालय (अब पीएम श्री नवोदय विद्यालय के रूप में नामित) से 12वीं पास करने के बाद उन्होंने सोचा था कि वह डेंटल सर्जन बनेंगे। बैचलर ऑफ डेंटल सर्जरी (बीडीएस) में दाखिले के लिए उन्होंने 2003 में जरूरी परीक्षा भी पास कर ली।
डॉ. प्रसाद चंद्र टुडू ने The Indian Tribal को बताया, ‘मैंने आगे की पढ़ाई रोक कर दो साल तक मेडिकल में प्रवेश के लिए जरूरी परीक्षा की तैयारी की। मुझे इसका शानदार नतीजा मिला और परीक्षा पास कर ली, लेकिन पैसे की कमी के कारण मैं मेडिकल में दाखिला नहीं ले सका, क्योंकि फीस समेत इसका खर्च 12000 रुपये से 15000 रुपये था, जो मेरे किसान पिता के लिए वहन करना संभव नहीं था।
मैंने शिक्षा ऋण लेने की भी कोशिश की, लेकिन उसके लिए बैंक ने गारंटर के रूप में एक सेवाधारक व्यक्ति लाने के लिए कहा। मेरे जान-पहचान में कोई ऐसा व्यक्ति भी नहीं था। रेलवे में कर्मचारी रहे मेरे नाना गारंटर हो सकते थे, लेकिन 2001 में ही उनका निधन हो गया था। आखिरकार मैं हार मान गया और सर्जन बनने का विचार त्यागना पड़ा।’
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डेंटल सर्जन बनने का ख्वाब टूटने के बाद भी डॉ. प्रसाद शांत नहीं बैठे। उन्होंने जनमघुटु से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित रायरंगपुर कॉलेज, रायरंगपुर में बीएससी (जूलॉजी) में दाखिला ले लिया। उन्हें अपने कॉलेज प्रतिदिन 12 किलोमीटर साइकिल चलाकर जाना पड़ता था।
आदिवासी वैज्ञानिक अपने संघर्षों के बारे में बताते हैं, ‘मेरे पिता के पास लगभग दो एकड़ जमीन थी, जिसमें वर्षा आधारित फसलें ही उगाई जा सकती थीं। इसलिए पिता उसमें धान उगाते थे। खूब पसीना बहाकर वह सालभर में लगभग 20,000 रुपये कमा पाते थे और किसी तरह अपने पांच लोगों के परिवार का भरण-पोषण करते थे। हालांकि उन्होंने कभी भी मेरी पढ़ाई के खर्च में तंगी नहीं की। उस समय अनुसूचित जनजाति के छात्र को सरकार की ओर से लगभग 15,000 रुपये का वार्षिक वजीफा मिलता था। किसी गरीब किसान के बेटे के लिए यह बहुत बड़ा सहारा था। नवोदय विद्यालय में पढ़ाई के दौरान मुझे कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि वहां मैं छात्रावास में रहता था और यहां छात्रों को किसी भी चीज के लिए पैसा नहीं देना पड़ता था। सब कुछ सरकार की ओर से उपलब्ध होता था।’
उन्होंने खुद को पूरी तरह अपनी पढ़ाई में झोंक दिया। उन्होंने 2009 में बेरहामपुर (गंजम जिले का मुख्यालय) विश्वविद्यालय से जूलॉजी में एमएससी पास की। उसी वर्ष वह पश्चिम बंगाल के दीघा में भारतीय प्राणी सर्वेक्षण (जेडएसआई) के एक विंग, मरीन एक्वेरियम एंड रीजनल सेंटर (एमएआरसी) में वरिष्ठ जूलॉजिकल सहायक के रूप में भर्ती हो गए। एमएआरसी में नौकरी के दौरान उन्होंने 2019 में पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के तहत भारत के उत्तरी पूर्वी तट के इंटरटाइडल मैक्रो-बेंटिक अकशेरुकी जीवों पर शोध के साथ अपनी पीएचडी पूरी की।
सीधी भर्ती के माध्यम से 2017 में एमएआरसी में वैज्ञानिक के तौर पर अपनी सेवा शुरू करने के बाद डॉ. प्रसाद ने शोध पर ध्यान केंद्रित कर दिया, जिसमें समुद्री जीवों का सर्वेक्षण, अन्वेषण, पहचान और दस्तावेजीकरण शामिल था। इस दौरान उन्होंने न केवल विभिन्न विज्ञान पत्रिकाओं के लिए लिखना शुरू किया, बल्कि सम्मेलन पत्र भी प्रस्तुत किए। इसके लिए उन्हें अपने साथी वैज्ञानिकों, विद्वानों और अपने सहयोगियों से खूब प्रशंसा मिली। अब तक वह नौ पुस्तकें, 49 जर्नल पेपर और चार कांफ्रेंस पेपर लिख चुके हैं।
गंजम जिले के गोपालपुर में एस्टुरीन बायोलॉजिकल रिसर्च सेंटर (जेडएसआई की एक शाखा) के वैज्ञानिक डॉ. अनिल महापात्र के साथ मिलकर डॉ. प्रसाद ने ‘गाइड ऑन सम मरीन एक्वेरियम फोना’ लिखी, जिसे समुद्री वैज्ञानिकों के बीच बहुत अधिक सराहा गया।
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डॉ. अनिल कहते हैं, ‘मैंने डॉ. प्रसाद के साथ सात साल तक काम किया है। हम दोनों ने पांच से अधिक परियोजनाओं पर एक साथ काम किया और विभिन्न बैठकों और सम्मेलनों में लगभग 35 पेपर प्रस्तुत किए। डॉ. प्रसाद काफी मिलनसार व्यक्ति हैं। एक शोधकर्ता के रूप में वह तब तक नहीं रुकते या थकते जब तक किसी निष्कर्ष पर न पहुंच जाएं। वैज्ञानिक के रूप में वह हमेशा जिज्ञासु रहे हैं।’
इस आदिवासी वैज्ञानिक को अपनी इस शोध यात्रा के दौरान खूब प्रसिद्धि और पुरस्कार मिले। अब तक उन्होंने और उनकी टीम ने छह मोलस्का की खोज की है, जिनमें से मेलानोक्लामिस द्रौपदी का नाम भारत की पहली आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के नाम पर रखा गया है। अन्य पांच मोलस्का हैं- मेलानोक्लामिस बेंगालेंसिस, फ्लिफुसस मैनुएलै, अनादरा कॉन्सोशिएट, अनादरा ट्रोशेली और फुल्विया निएनकेआ।
इसी प्रकार उन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर मछली की पांच नई प्रजातियों की भी खोज की है। इनके नाम जिम्नोथोरैक्स विसाखाएंसिस, एनचेली प्रोपिनक्वा, चेलोनोडोंटॉप्स बेंगालेंसिस, नियोमेरिन्थे रोटुंडा और पैरास्कॉर्पेना मैकडाम्सी हैं।
सोलह वर्ष के धैर्य, लगन, परिश्रम और समर्पण ने डॉ. प्रसाद को एक कामयाब वैज्ञानिक बनाया है। वह कहते हैं, ‘हमारी टीम ने मोलस्का और मछली की जिन प्रजातियों की खोज की है, वे सूक्ष्म जीवों और छोटी मछलियों को भोजन खिलाती हैं। इससे जलीय पारिस्थितिकी संतुलन बना रहता है।’
अब प्रमुख अन्वेषक के रूप में डॉ. प्रसाद अप्रैल 2021 में शुरू हुए विंडोपेन ऑयस्टर प्लाकुने प्लेसेंटा के स्थिति सर्वेक्षण में व्यस्त हैं। सह-शोधकर्ता के रूप में अपनी टीम के साथ मिलकर उन्होंने नौ प्रमुख शोध कार्य किए हैं, जिनमें दीघा शंकरपुर लैंडिंग सेंटर में बाय-कैच जीव-जंतुओं की लैंडिंग पर आकलन शामिल है। यह शोध मार्च, 2023 में पूरा हुआ है। इसके अलावा उन्होंने तटीय नमभूमि की जैव विविधता पर शोध किया, जो मार्च, 2022 में पूरा हुआ था। सफर जारी है।