प्रत्येक आदिवासी समुदाय की अपनी विशिष्ट पारम्परिक पोशाक होती है। इस श्रृंखला में हम आपके लिए सेवन सिस्टर्स के नाम से प्रसिद्ध पूर्वोत्तर के पारम्परिक परिधानों के बारे में कुछ ऐसी ही रोचक जानकारियां लेकर आए हैं, जिनसे बहुत कम लोग वाकिफ हैं।
पहनावे को लेकर त्रिपुरा की आदिवासी महिलाएं बहुत संवेदनशील होती हैं। उनके लिए कपड़ा ही अच्छा नहीं हो, उनके लिए बुनावट की बारीकी एवं रंगों का भी बड़ा महत्व होता है। आमतौर पर यहां की सभी आदिवासी महिलाएं रिग्नाई नामक परिधान पहनती हैं, जो टखने तक लंबा होता है। शरीर के ऊपरी हिस्से को महिलाएं दो वस्त्रों से ढकती हैं, जिसे रीसा एवं रिकुतु कहते हैं। रीसा को रिहा भी कहा जाता है, जो विशेष रूप से छाती वाले हिस्से को ढकता है और रिकुतु पूरे धड़ को कवर करता है।
त्रिपुरा में पुरुष सामान्य रूप से ढीली-ढाली पोशाक पहनते हैं जो तौलिया जैसा दिखता है। इसे रिकुतु गमछा कहा जाता है। इसे शर्ट के साथ पहना जाता है। इस शर्ट को भी त्रिपुरी लोग कुबाई कहते हैं। गर्मियों के सीजन में पुरुष खुद को अत्यधिक गर्मी और उमस से बचाने के लिए पगड़ी भी पहनते हैं।
रीसा आमतौर पर नीले-काले रंग की होती है, लेकिन कभी-कभी यह लाल भी चल जाती है। त्रिपुरी हथकरघा की मुख्य विशेषता यह होती है कि कपड़े की कढ़ाई में विभिन्न रंगों का समावेश किया जाता है। यह भी ख्याल रखा जाता है कि यह एक जैसा न हो यानी बिखरे हुए पैटर्न में हो। इस कपड़े पर लंबवत और क्षैतिज पट्टियां बहुत पसंद की जाती हैं।
पुराने जमाने में ये कपड़े घर में काते गए सूती धागों से बनाए जाते थे। हालांकि, बदलते समय के साथ आजकल बाजार में हर प्रकार के कपड़े उपलब्ध हैं। इसके अलावा, अब रीसा का चलन भी कम हो गया। इसकी जगह धीरे-धीरे ब्लाउज ले रहा है। त्रिपुरा की युवा लड़कियां इन दिनों रिग्नाई के साथ टॉप पहनने लगी हैं। इसमें वे खूब जचती हैं।
कढ़ाई में सितारे, बिंदु, फूल आदि के साथ-साथ किसी विशेष जनजाति के लिए अलग से डिजाइन भी डाले जाते हैं। त्रिपुरा में चकमा, कुकी, लुसाई और रियांग जैसी प्रमुख जनजातियां रहती हैं। ये सभी जनजातियां शॉल या अन्य कपड़ों की कढ़ाई-बुनाई में अपने अलग-अलग निर्धारित डिजाइन ही पसंद करती हैं।
यहां रंगों का बड़ा महत्व होता है, जिन्हें यहां के लोग प्रतीकों में उपयोग करते हैं। लोग रंगों को लेकर कितने संवेदनशील होते हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक बुनकर को सबसे खराब सजा के रूप में किसी रंग के इस्तेमाल करने से मना करना होती है।
रोचक बात यह है कि लंबे समय से यह माना जाता रहा है कि त्रिपुरा में प्रसिद्ध हस्तियों के गीत गाए जाते हैं और उन्हें इन जनजातियों के कपड़ों में चित्रित किया जाता है। इसके अलावा यहां रंगों का बड़ा महत्व होता है, जिन्हें यहां के लोग प्रतीकों में उपयोग करते हैं। लोग रंगों को लेकर कितने संवेदनशील होते हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक बुनकर को सबसे खराब सजा के रूप में किसी रंग के इस्तेमाल करने से मना करना होती है।
आज भी गांवों में त्रिपुरी महिलाएं अपनी रीसा और रिग्नाई आमतौर पर पीठ से लपेटे जाने वाले साधारण करघा जिसे बैकस्ट्रैप भी कहते हैं, पर खुद ही बुनना पसंद करती हैं। लुंगी, साड़ी, चादर और स्कार्फ भी हथकरघा पर तैयार किए जाते हैं।
रंगों को लेकर त्रिपुरा की जनजातियां कोई समझौता नहीं करतीं। यहां की रियांग जनजाति काले, नीले और भूरे रंग के धागे के लिए पौधों से प्राप्त प्राकृतिक रंगों का ही उपयोग करती है। यह धागा भी हाथ से काते हुए कपास से बनता है।
त्रिपुरा की जनजातियों को खूबसूरत लसिंगफी बनाने के लिए भी जाना जाता है। यह लसिंगफी सूती धागों से बुना हुआ मोटा एवं गर्म कपड़ा होता है, जिसका उपयोग रजाई, कवर, स्कार्फ और बेडशीट आदि बनाने के लिए किया जाता है।
त्रिपुरी महिलाएं आभूषणों को बहुत पसंद करती हैं। वे चांदी, कांस्य, तांबे, सुलेमानी पत्थर, कांच के मोतियों एवं सिक्कों से बने आभूषण अधिक पहनती हैं। इसके अलावा उनके पास बांस और बेंत के आभूषण भी होते हैं। ये कुशल कारीगरी से तैयार किए गए हैं। ये आभूषण त्रिपुरा के लिए अद्वितीय हैं, जो पूरे विश्व में कहीं और देखने को नहीं मिलेंगे।
त्रिपुरा की आदिवासी महिलाएं सिक्कों या चांदी से बने हार पहनती हैं। चूडिय़ाँ, लोंग और झुमके चांदी अथवा कांस्य से तैयार किए जाते हैं। यहां आज भी दूरदराज के इलाकों में आदिवासी समुदायों में फूलों का उपयोग आभूषण के रूप में खूब किया जाता है।