भुवनेश्वर
वह अपने बाएं हाथ में बांस के दो टुकड़े थामे रहता है।दाहिने हाथ से वह अपने पास ढेर से धान का एक दाना उठाता है और धीरे से बांस के दोनों टुकड़ों के बीच फंसा देता है। इसके बाद वह सामने कुंडल से अपने चुने हुए रंग का धागा खींचता है और उसे धान के दाने के चारों ओर बुनता है। इस प्रक्रिया को दोहराता हुआ वह एक और दाना उठाकर बांस की खप्पचों के बीच रखता है और पहले वाले दाने से बांध कर उसे भी बुन देता है। इस तरह वह लगातार धान के दानों को एक-दूसरे से बांधता और बुनता जाता है। दिनभर में वह बस नाश्ते, दोपहर के भोजन और शाम की चाय के लिए ही रुकता है। पूरे एक सप्ताह की मेहनत से अंतत: धान के दानों से एक फीट ऊंची भगवान गणेश की मूर्ति तैयार होती है। बेहद आकर्षक यह मूर्ति बाजार में बिक्री के लिए चली जाती है।
रात-दिन अपने कला-कौशल से भोत्रा जनजाति के पदमन मुंडा (29) इसी तरह भगवान गणेश समेत असंख्य देवी-देवताओं, जानवरों और पक्षियों की आकृतियां गढ़ते हैं।
ओडिशा के नबरंगपुर के लिंबट्टा गांव के रहने वाले पदमन, उनकी पत्नी, दो भाई और माता-पिता सब मिलकर इसी कला के जरिए हर महीने लगभग 40,000 रुपये कमा लेते हैं।
दो बेटियों के पिता पदमन ने The Indian Tribal को बताया कि धान पर उभरने वाली यह आदिवासी धान शिल्प कला वस्तुत: हमारे बड़े परिवार का भरण-पोषण करने में काफी मददगार है, क्योंकि हमारे पास एक एकड़ भूमि है। इसमें हम देशी धान सापुरी उगाते हैं। हर साल लगभग 14 कुंतल धान पैदा होता है, जिसमें से तीन कुंतल हम अपने शिल्प के लिए अलग रख लेते हैं, जबकि शेष पूरे साल खाने के लिए अलग रखी जाती है।
इस शिल्प कला में धान की कई देशी किस्मों का उपयोग किया जाता है, लेकिन सापुरी पदमन की पसंदीदा है, क्योंकि यह आकार में बड़ी है और अपने ही खेत में उगाने के कारण उनका काम काफी आसान हो जाता है। उन्होंने बताया कि पहले वह धान को हल्दी के पानी में भिगोते हैं और उसके बाद धूप में सुखाते हैं। हल्दी के पानी में भिगोने से धान खराब होने से बच जाता है और उसकी चमक भी बढ़ जाती है।
पदमन अपने कुशल और फुर्तीले हाथों से हर महीने औसतन 15 शिल्प बुन लेते हैं। उसी अवधि के दौरान उनके परिवार के अन्य सदस्य भी 40 से अधिक शिल्प तैयार कर लेते हैं। पदमन की पत्नी तुलसी मुंडा कहती हैं कि पदमन पूरे परिवार में शिल्प तैयार करने में सबसे तेज और होशियार है। यही कारण है कि भुवनेश्वर स्थित राज्य जनजातीय संग्रहालय ऐसे धान शिल्प बनवाने के लिए उन्हीं को काम सौंपता है।
जनजातीय संग्रहालय के क्यूरेटर, पुरुषोत्तम पटनायक, तुलसी द्वारा अपने पति के बारे में कही गई बातों पर हामी भरते हैं। पटनायक ने कहा कि पहले हमारे लिए काम करने वाले शिल्पकार ढीले और सुस्त थे, लेकिन पदमन बेहद ईमानदारी से रचनात्मक काम करते हैं।
पदमन का शिल्प उनके अपने गांव और आसपास के लोगों में हॉट केक की तरह बिकता है, खासकर अक्षय तृतीया, बाली यात्रा और दिवाली जैसे उत्सव के अवसरों के दौरान तो उनके तैयार किए गए देवी-देवताओं की बिक्री दस प्रतिशत तक बढ़ जाती है। उन्होंने कहा कि मैं राज्य की राजधानी में वार्षिक आदिवासी मेले सहित विभिन्न मेलों में भी अपनी बनाई वस्तुएं बेचता हूं। प्रत्येक शिल्प की कीमत 300 रुपये से लेकर 600 रुपये तक होती है। शिल्प की कीमत उसकी ऊंचाई, लंबाई-चौड़ाई आदि से तय होती है।
जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें या उनके परिवार को शिल्प के लिए कोई सरकारी सहायता मिली है, तो उन्होंने कहा कि अपना घर बनाने के लिए साल 2022 में हमें राज्य उद्योग विभाग की ओर से 1.30 लाख रुपये मिले थे।
धान की शिल्पकला पदमन को अपने पिता और दादा से विरासत में मिली थी, लेकिन वह इसमें लीक से हटकर कुछ नया करना चाहते थे। पहली बार 2012 में जिला उद्योग केंद्र, नबरंगपुर ने उन्हें और चार अन्य लोगों को छह महीने के प्रशिक्षण के लिए चुना। इस कार्यक्रम के तहत उन्हें विशेष कला का प्रशिक्षण दिया जाना था। इस दौरान अपने कौशल को निखारने के साथ-साथ उन्होंने बांस के टुकड़ों और पीले, हरे, काले और लाल रंग के धागों की मदद से देशी धान सापुरी से विविध डिजाइन बनाने की दिशा में काम शुरू किया।
उनके कुशल हाथों ने छोटी-छोटी बालियां, लॉकेट, हार और अंगूठियों के साथ-साथ विभिन्न देवी-देवताओं की छोटी और बड़ी मूर्तियां बनाईं। लेकिन, उनके लिए असली परीक्षा की घड़ी 2013 और 2015 के बीच आई, जब उन्हें पांच अन्य शिल्पकारों के साथ मानव संग्रहालय, भोपाल और क्षेत्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय, मैसूर में आमंत्रित किया गया। पदमन और उनकी टीम ने मैसूर में अपने 10 दिवसीय प्रवास के दौरान 12 मूर्तियां बनाईं। इसी प्रकार उन्होंने भोपाल में 21 दिन में तीन आदिवासी देवताओं- झंगडा भीमा, रेला खंडूरी और टेंगुआ भीमा की विशाल मूर्तियां बनाईं।पदमन ने The Indian Tribal से बातचीत में बताया कि भोपाल की यात्रा सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण रही, क्योंकि हमें 10 किलोग्राम धान से सात फीट ऊंची मूर्तियां बनानी थीं। इनमें प्रत्येक का वजन 30 किलोग्राम से अधिक था।