रांची
दुनियाभर में कथक और रवींद्र नृत्य शैली के क्षेत्र में ख्याति हासिल करने के बाद झारखंड की आदिवासी महिला अब अपने शहर रांची में सैकड़ों बच्चियों को इस नृत्य शैली की बारीकियां और पेचीदगियां सिखा रही हैं। कथक और रवींद्र नृत्य ऐसी शैलियां हैं, जहां एक कलाकार की शारीरिक भाषा और भाव-भंगिमा हावी रहती हैं। ईसाई धर्म में आस्था रखने वाली इस ख्यातिलब्ध नृत्यांगना को इन महान नृत्य शैलियों की पहली आदिवासी गुरु के रूप में जाना जाता है।
साधारण मध्य वर्गीय उरांव परिवार में जन्मी चंद्रा शालिनी कुजूर के माता-पिता रांची में महालेखाकार कार्यालय में काम करते थे। प्रसिद्ध नृत्य उस्ताद स्वर्गीय विपुल दास उनके सहयोगियों में से थे। दास ने शालिनी को तब देखा जब वह मुश्किल से चार साल की रही होंगी। उन्होंने उनके माता-पिता से इस होनहार बच्ची को शास्त्रीय नृत्य-संगीत सीखने के लिए उनके पास भेजने का आग्रह किया। इस प्रकार, उस छोटी आदिवासी लडक़ी की आगे की संगीत यात्रा शुरू हुई।
गुरु ने न केवल उनके नृत्य कौशल को निखारा बल्कि वैश्विक मंचों पर उन्हें कथक एवं रवींद्र नृत्य शैलियों की चुनौतियों से पार पाने के लिए तैयार भी किया। शालिनी The Indian Tribal के साथ बातचीत के दौरान याद करते हुए बताती हैं कि मेरे गुरु ने हमेशा मेरी नृत्य क्षमता पर भरोसा किया और मुझे खूब सराहा। रवींद्र नाथ टैगोर के प्रसिद्ध नृत्य नाटक भानुसिंघेर पदावली के मंचन के दौरान उन्होंने मुझे कोटल की भूमिका दी। यह एक पुरुष पात्र और नाटक का मुख्य खलनायक था। इसलिए मैं काफी उलझन में थी, लेकिन जब इस नाटक का मंचन हुआ, तो दर्शकों ने मुख्य किरदार से ज्यादा मेरे अभिनय को सराहा। यही नहीं, मेरे नृत्य को भी खूब तालियां मिलीं।
शालिनी के गुरु दास वाईएमसीए और कई अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े थे। इसका फायदा इस आदिवासी नृत्यांगना को भी मिला। परिणामस्वरूप उनकी मंडली को 1998 में बांग्लादेश के विभिन्न शहरों और सन 2000 में अमेरिका में अपने नृत्य कौशल का प्रदर्शन करने का अवसर मिला। बंगीय सांस्कृतिक परिषद ने वर्ष 2017 में कथक नृत्य के क्षेत्र में उनके अनुकरणीय प्रदर्शन के लिए शालिनी को स्वर्ण पदक से सम्मानित किया।
मुश्किलें नहीं थीं कम
करियर की शुरुआत में आसपास के लोग शालिनी को नचनी कहकर चिढ़ाते थे। समाज के स्वघोषित ठेकेदारों ने भी उनके गुरु वंदना, विष्णु वंदना, राधा कृष्ण और कथक नृत्य शैली के बुनियादी नियमों के प्रदर्शन पर कड़ी आपत्ति जताई। ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि वह ईसाई धर्म को मानने वाले परिवार से ताल्लुक रखती थीं। उनके और गरीब माता-पिता के लिए उन्हें यह समझाना बहुत मुश्किल था कि ईश्वर एक है और ठुमरी-दादरा में ईश्वर का जिक्र किए बिना उसका कोई मतलब नहीं है। हालांकि, जैसे-जैसे उनकी ख्याति बढ़ती गई, आसपास के लोगों, रिश्तेदारों और समाज ने उनकी तारीफें करनी शुरू कर दीं या आलोचना करना छोड़ दिया।
अच्छी बात यह रही कि नृत्य सीखने के दौरान कक्षा में कभी भी उनके साथ भेदभाव का मामला सामने नहीं आया। सांवले रंग के बावजूद उन्हें कभी उपेक्षा नहीं झेलनी पड़ी और अक्सर मुख्य भूमिकाएं दी गईं, जिनमें उन्होंने अपनी अलग छाप छोड़ी। गुरु ने हमेशा अपने सभी शिष्यों का मूल्यांकन उनकी वास्तविक खूबियों के आधार पर किया।
आगे क्या है लक्ष्य?
चालीस साल की उम्र में यह आदिवासी नृत्यांगना अब एक नृत्य स्कूल चला रही हैं, जहां प्रत्येक रविवार को करीब 100 आदिवासी लड़कियां कथक सीखने आती हैं। वह सप्ताह के अन्य दिनों में रांची के कई नृत्य और संगीत शिक्षण केंद्रों में जाती हैं। यही नहीं, वह रांची के बेथेस्डा टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में परफॉर्मिंग आर्ट भी पढ़ाती हैं।
इसके अलावा, उन्होंने यूजीसी-नेट परीक्षा उत्तीर्ण की है और रांची विश्वविद्यालय में पीएचडी के लिए अपना नामांकन कराया है। वह अर्थशास्त्र और नृत्य में स्नातकोत्तर हैं और शास्त्रीय नृत्य पर पीएचडी करेंगी।
उनके पति प्रशांत मिंज बीएसएफ में वरिष्ठ अधिकारी हैं। दोनों के तीन बच्चे हैं, लेकिन इनमें सबसे छोटे बच्चे सात साल के प्रणीत को ही नृत्य और संगीत में रूचि है।
शालिनी कहती हैं कि इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। संपन्न परिवारों की सैकड़ों महिलाएं अपने बच्चों को संगीत की शिक्षा दिलाने के लिए हर दिन मेरे पास आती हैं। इनमें दो से तीन साल के बच्चे भी शामिल होते हैं। मैं उन्हें यही सलाह देती हूं कि पहले बच्चों को ठीक से बोलना सीखने दें, उन्हें बचपन जीने दें। मैं उन्हें नृत्य कला सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहूंगी।