शिलांग/गुवाहाटी
इस मनोरंजक जनजातीय, स्वदेशी खेल में मांस का टुकड़ा एक ऐसी रस्सी में लटका दिया जाता है, जिसके दोनों सिरे अमूमन दो पेड़ों या बांस सी सीधी लकडिय़ों से जमीन से 3 से 5 फीट ऊपर बंधे होते हैं। कभी-कभी रस्सी के दोनों सिरों को दो लोग भी पकड़ कर ऊपर उठाए हुए होते हैं।
खेल में अधिकतम पांच प्रतिभागी होते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी को एक साथ कूदकर पहले ही प्रयास में रस्सी में बीचोंबीच बंधे मांस को छूना या उसमें लात मारनी होती है। इस खेल की उत्पत्ति लगभग 400 साल पहले हुई थी और यह अभी भी मेघालय की जैंतिया, खासी और गारो जैसी आदिवासी जनजातियों के बीच खूब प्रचलित है।
इस खेल की रोचकता यही है कि खिलाड़ी जब कूदता है और सिर्फ एक पैर से मांस के टुकड़े को छू पाता है तो वह आउट हो जाता है। यदि वह दोनों पैरों से मांस को छू देता है तो रस्सी को अगले प्रतियोगी के लिए थोड़ा और ऊपर बांध दिया जाता है या दोनों सिरों पर खड़े दोनों लोग रस्सी को और ऊपर कर लेते हैं।
कौन प्रतियोगी मांस को छूने के लिए आएगा, इसका चयन ड्रा के माध्यम से होता है। यानी पांचों प्रतियोगियों के नाम चिट में लिखकर रखे जाते हैं और जिस खिलाड़ी के नाम की चिट निकलती है, वही मांस को छूने के लिए आता है। अब जो खिलाड़ी सबसे ज्यादा ऊंचाई पर मांस को लात मारता है, वही विजेता घोषित किया जाता है।
प्रतियोगियों को पुरस्कार भी देसी अंदाज में दिया जाता है। विजेता खिलाड़ी को पुरस्कार स्वरूप नकदी तो देते ही हैं। कुछ मुर्गियां, चावल या बोरीभर आलू और कभी-कभी अनानास और मक्का जैसी खाद्य वस्तुएं भी इनाम में रखी जाती हैं।
शिलांग की रहने वाली डोरोथी फांबू कहती हैं कि यदि आप सोचते हैं कि यह खेल केवल पुरुषों के लिए ही है, तो आप पूरी तरह गलत हैं। इसमें महिलाएं विशेष कर ग्रामीण अंचल की उत्साही जैंतिया युवतियां भी बड़े जोश के साथ भाग लेती हैं।
400 साल पुराना खेल
फांबू ने The Indian Tribal को बताया कि उन्होंने अपनी दादी से इस खेल के बारे में एक दिलचस्प लोककथा सुनी है। वह बताती थीं कि इस खेल की उत्पत्ति 400 साल पहले हुई थी। उस समय मेघालय की अधिकांश जनजातियां पहाडिय़ों पर स्थित छोटे गांवों या बस्तियों में रहती थीं। उस दौर में एक भी गांव ऐसा नहीं था, जिसमें खुद के खाने के लिए सभी फसलें उगाई जा सकें।
उदाहरण के लिए कुछ गांवों में ऐसी जमीन थी, जिसमें केवल मक्का या अनानास की खेती ही की जा सकती थी, लेकिन अन्य सब्जियां और मौसमी फल उसमें नहीं उग सकते थे। अन्य गांवों में इसका उलटा हाल था। ऐसी स्थिति में वस्तु विनिमय प्रणाली के दिलचस्प विकल्प के रूप में इस खेल की शुरुआत हुई थी। इसमें पड़ोसी गांवों के खिलाडिय़ों के समूह आते और खेल के माध्यम से पुरस्कार स्वरूप अन्य खाद्य वस्तुएं जीत कर ले जाते।
विजेता खिलाडिय़ों को अनाज, सब्जियों और फलों के रूप में हमेशा पुरस्कार दिया जाता था। खेल के दौरान ऐसे ही अनाज या फल-सब्जियों को इनाम के तौर पर रखा जाता, जो दूसरे क्षेत्रों में पैदा नहीं होते थे।
फांबू के अनुसार उनकी दादी ने यहां तक बताया था कि जिन खिलाडिय़ों ने कई बार अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया, उन्हें गांवों के भीतर बहुत अधिक महत्व और अधिकार के पद दिए गए।
इस खेल का एक दार्शनिक संदेश भी है। एक बार जब हम कुछ हासिल कर लेते हैं, तो हमें कभी भी संतुष्ट नहीं होना चाहिए। हमें केवल यह जानना चाहिए कि हमने किसी चीज के लिए स्तर बढ़ा दिया है या एक अभूतपूर्व मानक स्थापित किया है। भविष्य में किसी और की नई उपलब्धि के साथ वह मानक हमेशा ऊंचा होता जाएगा। कुछ स्तर पर यह खेल हमें विनम्र और ज़मीन से जुड़े रहना भी सिखाता है।