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Home » द इंडियन ट्राइबल / हिंदी » द इंडियन ट्राइबल / स्वास्थ्य » क्या 2030 तक मलेरिया मुक्त हो जाएंगे आदिवासी क्षेत्र?

क्या 2030 तक मलेरिया मुक्त हो जाएंगे आदिवासी क्षेत्र?

मलेरिया उन्मूलन के लिए भारत के मिशन 2030 का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब आदिवासियों के मूल निवास जंगली क्षेत्रों में इस बीमारी को नियंत्रित किया जाए। मिशन की स्थिति और आवश्यकता पर The Indian Tribal की स्पेशल रिपोर्ट

May 17, 2023
A Fogging Exercise Underway

नई दिल्ली

दो पड़ोसी देश चीन और श्रीलंका जहां मलेरिया पर काबू पा चुके हैं वहीं, भारत को अभी इस बीमारी से छुटकारा पाने में सात साल और लग सकते हैं। मौजूदा स्थिति देखें तो वर्ष 2021 में डब्ल्यूएचओ एसईएआर में कुल मलेरिया मामलों में 83 प्रतिशत और इस बीमारी से होने वाली सभी मौतों में 82 प्रतिशत भारत से थीं।

राष्ट्रीय स्तर पर मलेरिया उन्मूलन में जनजातीय समुदायों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि देश की कुल आबादी का 6.6 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्रों में रहता है। वर्ष 2019 में मलेरिया के 21 प्रतिशत मामले और 53 प्रतिशत से अधिक मौतें इन्हीं वन क्षेत्रों में दर्ज की गई थीं। 

यदि दो दशक के आंकड़ों को देखें तो वर्ष 2000 से 2019 तक मलेरिया के 32 प्रतिशत से अधिक मामले और 42 प्रतिशत मौतें वन क्षेत्रों वाले जिलों में दर्ज की गईं, जहां आदिवासी लोग अधिक रहते हैं। 

मच्छरों की अधिकता वाले क्षेत्रों को मलेरिया से मुक्त बनाने में कीटनाशक प्रतिरोध में वृद्धि, उप-सूक्ष्म संक्रमणों की अधिकता, समुदायों की जांच और इलाज की चुनौती जैसे कुछ महत्वपूर्ण कारक हैं। 

आईसीएमआर (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च), रायपुर और आईसीएमआर- दिल्ली के शोधकर्ता राजू रांझा और अमित शर्मा ने ‘वन्य मलेरिया : भारत में मलेरिया नियंत्रण और उन्मूलन में प्रमुख बाधा’ नामक अपने शोध में कहा है कि मलेरिया उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वन क्षेत्रों में अभी और अधिक संसाधनों को झोंकना होगा। 

एक अच्छी बात यह है कि सभी बाधाओं के बावजूद भारत ने 2017 के बाद से मलेरिया काबू करने के प्रयास काफी तेज कर दिए हैं। पीएलओएस ग्लोबल पब्लिक हेल्थ में जनवरी 2023 में प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट- ‘ट्रैकिंग डिस्ट्रक्ट लेवल परफॉर्मेंस इन द कंटेक्स्ट ऑफ अचीविंग जीरो इंडिजेनस केस स्टडी बाय 2027 (Tracking district-level performance in the context of achieving zero indigenous case status by 2027) कहती है कि मलेरिया उन्मूलन के लिए मौजूदा प्रयास और इस दिशा में प्रगति काफी सराहनीय है। 

मलेरिया मामलों में साल 2016 से 2021 तक 85 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। इसे देखते हुए उन्मूलन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इसे और अधिक प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

अध्ययन से यह भी पता चलता है कि भारत के लगभग आधे जिलों (307 में 117) में 2020 तक या तो मलेरिया के शून्य या नगण्य (50 या इससे कम) मामले दर्ज किए गए। शेष 205 जिलों में दो या तीन साल के भीतर कमी आने या जीरो स्तर पर आने की संभावना है। 

Malaria Menace
मलेरिया का खतरा

हालांकि, 15 जिले ऐसे हैं, जो मलेरिया उन्मूलन के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि पिछले तीन वर्षों (2018-20) में उनकी सबसे अच्छी कमी दर को देखते हुए भी अभी उन्हें शून्य मामलों की स्थिति में लाने के लिए 2030 तक का समय लग सकता है। अध्ययन के अनुसार, ग्रेटर मुंबई और कोलकाता के शहरी इलाकों को छोडक़र, शेष जिलों में बड़ी जनजातीय आबादी रहती है और ये सभी जिले छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल के हैं। 

मलेरिया उन्मूलन की रणनीति के बारे में बात करते हुए शोध के प्रमुख लेखक और आईसीएमआर, नई दिल्ली के वैज्ञानिक सीपी यादव कहते हैं कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे कुछ अत्यधिक आदिवासी आबादी वाले राज्यों में डब्ल्यूएचओ के सहयोग से हाई बर्डन, हाई इम्पैक्ट की नीति को अपनाया है। डब्ल्यूएचओ मलेरिया उन्मूलन के लिए स्थिति विश्लेषण, क्षमता निर्माण और जिला परिचालन योजनाओं को अंतिम रूप देने में इन राज्यों की सहायता करता है।

छत्तीसगढ़ ने हाल ही में मलेरिया मुक्त बस्तर अभियान चलाया, जिसे बाद में मलेरिया मुक्त छत्तीसगढ़ के रूप में विस्तारित कर दिया गया। इसके तहत कई स्थानिक क्षेत्रों, विशेष रूप से बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निगरानी, जांच और इलाज के प्रयास किए गए हैं।

उत्तर प्रदेश ने भी हाल ही में सभी जल जनित रोगों का मुकाबला करने के लिए ‘दस्तक’ अभियान शुरू किया है। वर्ष 2016 से 2021 तक मलेरिया के मामलों में 95 प्रतिशत की कमी दर्ज करने वाला ओडिशा मलेरिया उन्मूलन अभियान में भारत में सबसे आगे रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार ओडिशा ने उच्चतम एपीआई राज्य से सबसे महत्वपूर्ण कमी दर्ज करने वाले राज्य का दर्जा हासिल कर देश के समग्र संक्रमण भार को कम कर दिया है। 

राज्य सरकार की ओर से चलाए जाने वाले कार्यक्रम- कॉम्प्रिहेंसिव केस मैनेजमेंट प्रोग्राम (सीसीएमपी) के जरिए मलेरिया के लिए खराब निगरानी और गंदे जलाशयों की पहचान की है।

इस कार्यक्रम ने 2016 और 2020 के बीच अपने परिणाम देने शुरू कर दिए थे और पूर्वोत्तर के साथ-साथ ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मलेरिया मामलों में उल्लेखनीय गिरावट आई है। 

इन सबके बावजूद आदिवासी क्षेत्रों में कई चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं। इनमें मलेरिया से निपटने में कीटनाशक प्रतिरोध में वृद्धि, उप-सूक्ष्म संक्रमण का उच्च प्रतिशत और समुदायों की जांच और इलाज में दिक्कतें प्रमुख रूप से देखी जा सकती हैं।

मिजोरम को छोड़ आदिवासी क्षेत्रों में बड़ी आबादी कुपोषण का शिकार है। चूंकि संक्रमण के प्रति प्रतिरोधक क्षमता व्यक्ति के पोषण की स्थिति से सीधी जुड़ी हुई है, इसलिए विशेषकर भारतीय संदर्भ में, मलेरिया के मरीज पर कुपोषण के संभावित प्रभाव को समझना महत्वपूर्ण है।

Indian Council Of Medical Research, Delhi

आईसीएमआर, दिल्ली के श्रीकांत नेमा कहते हैं कि यदि भारत 2030 तक रोग खासकर मलेरिया और सभी तरह के कुपोषण उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, तो सबसे पहले जनजातीय क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देना होगा। साथ ही देश के दूर-दराज के इलाकों में सभी संभव रणनीतियों को लागू करना होगा।

कुपोषण और मलेरिया के बीच जटिल संबंधों की बेहतर समझ होना बहुत जरूरी है, ताकि जहां-जहां ये दोनों बीमारियां पसरी हैं,  उन क्षेत्रों को लक्षित कर उन्मूलन कार्य किए जा सकें।

नेमा ने ‘मलेरिया और कुपोषण भारत के आदिवासी समुदाय और रोग उन्मूलन के लिए खतरा’ नामक अपने शोध में कहा कि सरकार एवं कई निजी एजेंसियों ने विभिन्न कार्यक्रमों, योजनाओं के माध्यम से बीमारी पर काबू पाने में काफी हद तक सफलता पाई है। हालांकि, स्वास्थ्यवर्धक संतुलित आहार, सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता जैसे उपाय करना बेहद जरूरी है। 

आदिवासियों का रहन-सहन, असंतुलित मौसमी घटनाएं एवं दुर्गम इलाकों तक आवाजाही के साधनों की कमी कुपोषण प्रसार के अन्य बड़े कारक हैं। आदिवासी अधिकांश ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां मलेरिया वाले मच्छरों का प्रकोप अधिक है।

इसके अलावा, लोग अक्सर कम कपड़े पहनते हैं, जिससे उन्हें मच्छर आसानी से काटते हैं। यही नहीं, जब उनमें पहली बार बीमारी के लक्षण दिखाई देते हैं तो वे उसका इलाज कराने में भी हिचकते हैं। 

आईसीएमआर, रायपुर के शोधकर्ता राजू रांझा बढ़ते कीटनाशक प्रतिरोध और बदलते वेक्टर व्यवहार से निपटने के लिए नए वेक्टर नियंत्रण उपकरणों पर जोर देते हैं। वह कहते हैं कि बीमारी के शुरुआती चरण में संक्रमणों की नियमित पहचान और फौरन इलाज पर नजर रखने की जरूरत है। 

जनजातीय क्षेत्रों में मलेरिया : चुनौती और रणनीति

  • -फाल्सीपेरम मलेरिया और गंभीर तथा जटिल मलेरिया।
  • –ग्राम स्तर: स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, बीमारी की पहचान करने वाले सहायकों और आवश्यक दवाओं की कमी। 
  • -24 घंटे आवश्यक सेवाओं, बुनियादी जांच और हर स्तर पर सुरक्षित रक्त (पीएचसी, सीएचसी) की कमी। 
  • -जिला अस्पताल और मेडिकल कॉलेज अस्पताल स्तर पर भी आपातकालीन बुनियादी जांच की कमी चिंता का विषय बनी हुई है।
  • -फाल्सीपेरम मलेरिया के संदर्भ में तृतीयक देखभाल की कमी अर्थात भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली में हेमोडायलिसिस एवं वेंटिलेशन बामुश्किल ही उपलब्ध होते हैं।-ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता  और पीएचसी/सीएससी में एम्बुलेंस सेवाओं की अत्यंत आवश्यकता महसूस की जा रही है।
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Tribal scholar from Jharkhand represents India at German-India Summit 2025

Maloti Hambram, an LL.M. scholar from the National University of Study and Research in Law (NUSRL), Ranchi, and a member of the tribal community from East Singhbhum, represented India at the German-India Innovation Summit (GIIC) 2025, held on October 6th–7th in Berlin, Germany. She actively contributed to the summit’s working sessions.The summit, focused on accelerating innovation and technological collaboration between India and Germany. Following the Berlin summit, Hambram extended her diplomatic engagements during her visit to Belgium from October 9th–10th, 2025, where she held insightful discussions with Members of the European Parliament  and officials from the Belgian Embassy.
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The Indian Tribal is India’s first bilingual (English & Hindi) digital journalistic venture dedicated exclusively to the Scheduled Tribes. The ambitious, game-changer initiative is brought to you by Madtri Ventures Pvt Ltd (www.madtri.com). From the North East to Gujarat, from Kerala to Jammu and Kashmir — our seasoned journalists bring to the fore life stories from the backyards of the tribal, indigenous communities comprising 10.45 crore members and constituting 8.6 percent of India’s population as per Census 2011. Unsung Adivasi achievers, their lip-smacking cuisines, ancient medicinal systems, centuries-old unique games and sports, ageless arts and crafts, timeless music and traditional musical instruments, we cover the Scheduled Tribes community like never-before, of course, without losing sight of the ailments, shortcomings and negatives like domestic abuse, alcoholism and malnourishment among others plaguing them. Know the unknown, lesser-known tribal life as we bring reader-engaging stories of Adivasis of India.

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