जम्मू/श्रीनगर
पुराने जमाने से ही चांदी जम्मू-कश्मीर में विशेषकर गुज्जर-बकरवाल जनजातियों का पसंदीदा पारंपरिक गहना रहा है। आज भी ज्यादातर खानाबदोश परिवारों की महिलाएं सोने के बजाय चांदी के बने आभूषण ही अधिक पसंद करती हैं। माता-पिता तो शादी में बेटी को चांदी के गहने भेंट करते ही हैं, ससुराल में भी दुल्हन का स्वागत इन्हीं गहनों से किया जाता है।
The Indian Tribal से बात करते हुए शोधकर्ता एवं लेखक डॉ. जावेद राही कहते हैं कि गुज्जर और बकरवाल आदिवासी महिलाएं बेहतरीन कसीदाकारी वाले भारी-भरकम चांदी के आभूषण पहनती हैं। वे विशेष रूप से गनी और हसीरी जैसे गर्दन में पहने जाने वाले गहनों को पसंद करती हैं।
इसमें चांदी के छोटे-छोटे टुकड़ों से बनी चकदीदार डोडमाला भी खूब पहनी जाती है। इसी प्रकार हामेल होता है जो एक साथ जुड़े चांदी के सिक्कों और एक भारी लटकन के साथ बड़ा खूबसूरत लगता है। इसके अलावा मनके वाली जोमाला और भारी बैंड जैसी हंसली भी लोकप्रिय है।
खुद गुज्जर-बकरवाल जनजाति से ताल्लुक रखने वाले डॉ. राही लोकप्रिय त्रिकोणीय लटकन के महत्व को विस्तार से समझाते हैं। डॉ. राही ने बताया कि इस लटकन या पेंडेंट के बीच में एक कीमती पत्थर जड़ा हुआ होता है। यह बुरी नजर से बचने का प्रतीक होता है और दुर्भाग्य को दूर करने के लिए भी इसे पहना जाता है।
युवा लड़कियां छोटी से छोटी नोज पिन या नाली खूब शौक से पहनती हैं। बड़ी उम्र की लड़कियां तीरा और विवाहित महिलाएं नाक में बड़े और जटिल कसीदाकारी वाले आभूषण पहनती हैं, जिन्हें अमूमन लौंग कहा जाता है। ज्यादातर आदिवासी लड़कियों और महिलाओं की नाक छिदवाई जाती है। युवा लड़कियां छोटी से छोटी नोज पिन या नाली खूब शौक से पहनती हैं।
डॉ. राही के अनुसार, कुछ लड़कियां मुर्की भी पसंद करती हैं। यह नाक पट में एक गोल बारीक गढ़े हुए तार की बनी रिंग होती है। बड़ी उम्र की लड़कियों को तीरा पहने देखा जा सकता है। यह थोड़ी बड़ी नोज पिन होती है, जबकि विवाहित महिलाएं नाक में बड़े और जटिल कसीदाकारी वाले आभूषण पहनती हैं, जिन्हें अमूमन लौंग कहा जाता है।
आदिवासी महिलाएं कानों में इतने भारी छल्ले व घंटियों वाली दर्जन-दर्जन बाली पहनती हैं कि उनके कानों की लौ की त्वचा वजन के कारण नीचे लटक जाती है, या कभी-कभी कट जाती है। बहुत सी जनजातीय महिलाओं को मोटे चांदी के कड़े वाले झुमके पहने भी देखा जा सकता है।
गुज्जर दुल्हनें अपनी शादी में चेन, दोलारा, सरगस्त, महाल, गनी, झुमके, चूडिय़ां और अंगूठी जैसे एक से बढक़र एक गहने पहनकर सजती-संवरती हैं।
यही नहीं, आदिवासी पुरुष भी चांदी के आभूषण खूब पहनते हैं। आम तौर पर वे कुर्ते के बटन या मोगला नामक स्टड जो कफलिंक के रूप में उपयोग किए जाते हैं, पहनते हैं। कोई-कोई पुरुष अंगुथरा के साथ झंझरा नामक चांदी की पायल भी पहनते हैं। अंगुथरा पैर के अंगूठे में पहनी जाने वाली चांदी की अंगूठी को कहा जाता है।
क्यों सदियों पुरानी प्रथा अब हो रही समाप्त?
आदिवासी लोग चांदी के आभूषण सदियों से ही पहनते आ रहे हैं, लेकिन नई पीढिय़ों में यह प्रथा या शौक खत्म हो रहे हैं। सोने से बने आभूषणों की तुलना में चांदी के गहने भारी होते हैं। इनके जटिल डिजाइन और उनके बीच में जड़े रंगीन मोती आकर्षक भी लगते हैं।
डॉ. राही के अनुसार खानाबदोश लोगों के दिमाग में आज भी वे ही पुराने डिजाइन बसे होते हैं, लेकिन मौजूदा दौर के पेशेवर आभूषण निर्माता उनकी पसंद के या पुराने गहनों की डिजाइन नकल करने में खुद को असमर्थ पाते हैं।
पुराने जमाने जैसे गहने गढऩे-जडऩे वाले शिल्पकार अब गिने-चुने ही रह गए हैं। पुरानी, जटिल कसीदाकारी छोडक़र सुनारों की नई पीढ़ी ने या तो कारोबार बदल लिए हैं अथवा आभूषण बनाने के लिए मशीनों का उपयोग करने लगे हैं जिनमें कम मेहनत और कम लागत आती है। इसलिए उनमें वह पुराना आकर्षण भी नहीं होता।
शहरों में रहने वाले आदिवासी परिवारों ने तो अब सोने के आभूषण पहनना शुरू कर दिए हैं। हालांकि, खानाबदोश आज भी चांदी के आभूषण ही पसंद करते हैं।