रांची
झारखंड का आदिवासी समुदाय 24 मार्च को सरहुल मनाएगा। यहां के सदान (गैर-आदिवासी) भी इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं। सरहुल पर्व को लेकर झारखंड में जगह-जगह अखड़ा और सरना स्थल सज चुके हैं, जहां विधि-विधान के साथ सरहुल की पूजा पहान करेंगे।
सरहुल चैत शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। रांची में सरहुल के दिन निकलनेवाली शोभा यात्रा मुख्य आकर्षण का केंद्र होगी, जिसमें इस बार लगभग 2 लाख आदिवासियों के जुटने की संभावना है। प्रकृति और पर्यावरण सरंक्षण का संदेश देने वाला पर्व सरहुल की झांकियों में इस बार सरना कोड की मांग उठेगी।
जुलूस में सरना धर्म कोड को प्रमुखता से दर्शाने की तैयारी है। ‘सरना धर्म कोड नहीं, तो वोट नहीं,’ मुख्य मुद्दा होगा। समुदाय ने 2024 के लोक सभा चुनाव से पहले अलग सरना धर्म कोड देने की माँग पूरी न होने पर चुनाव बहिष्कार की चेतावनी दी है । इसके अलावा ‘कुर्मी को एसटी बनाना बंद करो’, ‘1932 का खतियान, झारखंड की पहचान’ और पर्यावरण संरक्षण का संदेश झांकियों में दिया जाएगा। महिलाएं लाल पाढ़ की सफेद साड़ी और पुरुष सफेद धोती और पगड़ी में पारंपरिक वाद्ययंत्रों- ढोल, मांदर, तुरही, बांसुरी के साथ जुलूस में हिस्सा लेंगे।
झारखंड, बंगाल, ओडिशा, असम और बिहार में आदिवासी समुदाय का बड़ा तबका अपने आपको सरना धर्म का अनुयायी बताता है। वे प्रकृति की पूजा करते हैं जबकि हिन्दू मूर्ति पूजक हैं। आदिवासी समुदाय के नेता बताते हैं कि पिछली जनगणना में करीब 50 लाख लोगों ने सरना धर्म मानने की बात कही जबकि सिर्फ 45 लाख जैनियों ने अलग जैन धर्म के अनुयायी होने की बात कही फिर भी जैन धर्म को अलग कोड के साथ मान्यता मिल गई जो आदिवासियों के साथ अन्याय है।
सरहुल पर धरती और सूरज का विवाह
राष्ट्रीय सरना धर्मगुरु डॉ प्रवीण उरांव ने The Indian Tribal को बताया कि सरहुल के दिन पहान (पुरोहित) प्रतीकात्मक रूप से धरती और सूरज का विवाह रचाते हैं। इसमें पहान की पत्नी सहभागी बनती है। सरहुल का संपूर्ण अनुष्ठान सृष्टि-प्रक्रिया की पुनरावृत्ति है, जिसे हर वर्ष संपन्न किया जाता है, ताकि जंगल में सृष्टि का क्रम निर्बाध जारी रहे। सरहुल में सखुआ के पेड़ व फूल का विशेष महत्व है, जिसकी सरना स्थल पर पूजा की जाती है।
क्या-क्या होता है सरहुल के तीन दिनों में?
तीन दिवसीय सरहुल महोत्सव के तहत पहले दिन उपवास, दूसरे दिन सरहुल पूजा और शोभा यात्रा व तीसरे दिन फूलखोंसी का रस्म होता है। सरहुल पूजा से एक दिन पहले (यानी पहले दिन) गांव के पहान राजा (पुरोहित) उपवास कर पूजा के लिए मिट्टी लाते हैं। गांव की नदी या तालाब से नए घड़े में पानी भरकर गांव के सरना स्थल में रखा जाता है।
दूसरे दिन पहान राजा, गांव के लोग, बड़े-बुजुर्ग और घर के पुरुष उपवास कर अपने घर में पूजा कर, सरना स्थल पर लोटा में पानी भरकर ले जाते हैं। पहान राजा मां सरना, बाबा धर्मेश, सिंगबोंगा और गांव के देवी-देवता का स्मरण कर राज्य, जिला, गांव, देश की सुख-समृद्धि, अच्छी वर्षा, अच्छी फसल के लिए पूजा करते हैं। फुटकल, बड़हड़, कचनार, कोयनार फूल की सब्जी बनाकर मीठी रोटी के साथ धरती मां को नैवेद्य चढ़ाकर पूजा की जाती है। फिर इसी प्रसाद को बांटा जाता है।
सरहुल के अगले दिन (यानी तीसरे दिन) फूलखोंसी की जाती है। पहान राजा घड़े में पानी और सखुआ फूल लेकर सरना स्थल से शुरू कर गांव के हर घर में जाकर मिट्टी की छाप छोड़ते हैं और घर के दरवाजे में सखुआ फूल “खोंसते” हैं। महिलाओं के जूड़े व पुरुषों के कान पर सखुआ फूल “खोंसा” जाता है। घर के लोग पहान राजा के पैर धोकर आशीर्वाद लेते हैं।
कैसे करते हैं मौसम की भविष्यवाणी?
सरहुल में हवा और वर्षा का भी शगुन देखा जाता है। इसके लिए सरना स्थल पर दो घड़ों में पानी भरकर रखा जाता है। राष्ट्रीय सरना धर्मगुरु डॉ प्रवीण उरांव बताते हैं कि घड़े के ऊपर से अगर पानी बहने लगे, तो अधिक वर्षा की भविष्यवाणी पहान करते हैं। वहीं, अगर घड़े का पानी कम हो जाए, तो कम वृष्टि की आशंका रहती है। इसके अलावा घड़े के जिस हिस्से में अधिक नमी रहती है, उससे दिशा का बोध होता है कि पानी उत्तर, पूर्व, दक्षिण या पश्चिम से आएगा। डॉ प्रवीण कहते हैं कि आदिवासियों की प्रकृति की समझ इतनी गहरी और सटीक होती है कि पहान की मौसम की भविष्यवाणी शत-प्रतिशत सही निकलती है। खेती ठीक से होगी या नहीं, मनुष्य और जीव-जंतुओं को किसी प्रकार की कठिनाई तो नहीं होगी, इस तरह की भविष्यवाणी भी पहान करते हैं।
सरहुल की लोक कथाएं
पृथ्वी की बेटी बिंदी अप्रतिम सुंदरी थी। एक बार पाताल के राजा ने उसे देखा और उस पर मोहित हो गया। वह उसे अपने साथ पाताल ले गया। बेटी के वियोग में धरती मां उदास रहने लगी। चारों तरफ मातम का माहौल पसर गया। बिंदी भी उदास थी, लेकिन पाताल राजा उसे छोड़ने को तैयार नहीं था। बहुत अनुनय-विनय के बाद आखिरकार राजा ने बिंदी को कुछ दिनों के लिए धरती पर जाने की अनुमति दी। बिंदी के आगमन से धरती प्रफुल्लित हो उठी जिससे पेड़ पौधे सब खिल उठे। इसलिए शाल पुष्प को प्रतीक मानकर गांव के पहान ग्राम वासियों के साथ मिलकर इस पर्व का आयोजन करते हैं। इस मिथक के पीछे एक दर्शन है और विज्ञान भी। विज्ञान यह कि संसार में जब भी सृष्टि हुई है, सूर्य और पृथ्वी की अंतर क्रिया से हुई है। इस दृष्टि से सरहुल सृष्टि के सृजन का पर्व है।
सरहुल से जुड़ी एक अन्य लोककथा है कि दो भाई थे। बड़े का नाम था बा-बीर सिंह और छोटे का नाम था मागे बीर सिंह। दोनों भाइयों ने अपने-अपने जन्म मास के अनुरूप पर्व मनाने का निश्चय किया। ‘बा’ का अर्थ होता है साखू (सखुआ) के फूलों का महीना और ‘बीर’ का अर्थ जंगल, ‘मागे’ का तात्पर्य माघ महीना है। बड़े के जन्मदिन पर बा पर्व सरहुल मनाने और मागे के जन्म पर मागे पर्व में धांगड़-नौकर की छुट्टी का उत्सव मनाने की परंपरा है। आज भी इसी उपलक्ष्य में सरहुल मनता है।
मुंडा जनजाति की पौराणिक कथा के अनुसार सरहुल का सीधा संबंध राजा दशरथ से है। दशरथ की तीन रानियों से भी संतान नहीं हुई। तब राजा दशरथ ने श्रृंगी ऋषि से संतान की इच्छा जताई। उन्होंने राजा को एक फल दिया और तीनों रानियों को बांटकर खिलाने को कहा। राजा ने अभिमंत्रित फल छोटी रानी सुमित्रा को दे दिया। तीनों रानियों से राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए। एक दिन धाई इनके कपड़े धोने नदी गई। कपड़े धोते समय कपड़ों में बहुत सारी मछलियां, केकड़े, फंस गए। उसे लेकर धाई घर आई, लोगों ने इसे ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण किया। इस प्रथम दिवस को हाईकड़कोम कहा गया। दूसरे दिन चार बच्चों को जाति में सम्मिलित करने के लिए छठी की गई, पत्तों के आसन पर बिठा कर दोना पत्तल में साबुत उड़द की दाल और भात सबको खिलाया गया, इसे उड़द का दिन कहा गया। तीसरे दिन राजा ने गांव वालों को उत्सव मनाने को कहा। जंगल के साखू और निलई के सुगंधित फूलों से सरना, अखड़ा और घर द्वार सजाए गए। मुर्गे, बकरे की बलि देकर पूजा करने तथा प्रसाद ग्रहण करने का विधान किया गया। चौथे दिन जंगल से लाए गए फूल पत्तों का विसर्जन किया गया। तभी से मुंडा जनजाति समाज में सरहुल का उत्सव मनाया जाने लगा।
और क्या मान्यता है?
प्रकृति एक व्यापक शब्द है जो पर्यावरण में पाए जानेवाले सभी सजीवों से संबंधित है। सरहुल पर्व में प्रकृति समेत संपूर्ण जीवजगत के कल्याण की कामना की जाती है। सरहुल मनाने वाले इस पर्व से पूर्व नए फल ग्रहण नहीं करते, खेतों में खाद नहीं डालते और बीजों की बुवाई नहीं करते क्योंकि, आदिवासी सरहुल से पूर्व पृथ्वी को कुंवारी कन्या की तरह समझते हैं।
रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के समन्वयक डॉ हरि उरांव ने The Indian Tribal को बताया कि आदिवासी प्रकृति के महत्व को आदिकाल से समझते थे। वे जानते थे कि पृथ्वी पर पेड़-पौधे नहीं बचे तो मनुष्य, जीव-जंतु सबको जीवन के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। प्रकृति आदि काल से ही मानव जाति के लिए महत्वपूर्ण रही है। प्रकृतिपूजक आदिवासी समुदाय इसे समझता है।