रांची
पीढ़ियों से प्रकृति से सीखने और उसके अनुकरण की कोशिष करने के क्रम में ही आदिवासी एवं लोक कला का हर रूप प्रगतिमान रहा है। आदिवासी चित्रकला भी उसी प्रगतिमान कला की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति है। विशेषकर बर्ली, सउरा, गोंड चित्रकारों के चित्रों को गौर से देखें तो मिथक, कथा, इतिहास, दर्शन सबकी झलक हम इसमें पा सकते हैं।
आदिवासियों के जीवन में प्रकृति अंतर्भुक्त है, जो मानव और प्रकृति के द्वैतवाद के सिद्धान्त के प्रतिकूल है। उसके ‘हम’ में उसकी मिट्टी उसका पशुधन, उसकी फसल सब शामिल होते हैं। यह सार्वभौमिक भागीदारी, सहभागिता, समता और सम्मान को बढ़ावा देती है।
जनजातीय समुदायों के इन्हीं विषिष्ट जीवन मूल्यों एवं कला-रूपों से प्रेरित होकर डाॅ रामदयाल मुण्डा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखंड सरकार ने देशभर के जनजातीय एवं लोक चित्रकारों को सात दिवसीय शिविर में एकत्रित करने के अपने संकल्प को दूसरी बार मूर्त रूप प्रदान किया। यह शिविर 28 जनवरी से 3 फरवरी तक चला। यह शिविर देशभर के परंपरागत चित्रकारों का एक बहुआयामी मंच के रूप में कार्य करने में सफल रहा। शिविर एक आदिम चित्रकला की ऐसी दुनिया नजर आई, जिसमें कला के कई रंग समाहित दिखें। शिविर विभिन्न राज्यों के कलाकारों और उनकी विविध चित्रकलाओं का यह संगम अनेकता में एकता के आयाम को एक ठोस और मूर्त रूप प्रदान करता हुआ भी दिखा।
विविधता एवं कल्पनाशीलता को ध्यान में रखते हुए शिविर ने एक ऐसा मंच प्रदान किया, जहां विविध शैलियों के बीच एक तालमेल स्थापित हुआ। चित्रकारों के लिए भिन्न प्रान्त-भिन्न समुदाय की चित्रकला को देखने, समझने एवं स्वयं के होने के अर्थ को एक अलग नजरिये से स्थापित करने के प्रयास में भी सफल रहा यह शिविर।
आदिवासी-लोक चित्रकला दुनियावी गतिविधियों-दैनन्दिनी को कला के फलक पर एक अलग नजरिए से देखने एवं वर्णित करने का प्रयास करती है जिसके मूल में आदिवासी-दर्शन का सबके प्रति समता-सम्मान का भाव निहित है। गोंड चित्रकला पेड़ों, जानवरों एवं पक्षियों को बिन्दु के रूप में उकेरते हुए अपनी कथा-इतिहास को वर्णित करती है, बर्ली चित्रकला प्राकृतिक तत्वों को ज्यामितिक आकार के रूप में प्रस्तुत करते हुए कोई कथा सुनाती है तो सउरा चित्रकारी भी उसी ज्यामितिय रूपाकारों से अपने समुदाय की स्मृति-कल्पना को उजागर करती हुई दिखती है।
ये सभी आदिवासी चित्रकला शैलियां न सिर्फ मानव एवं मानवेतर तत्वों के बीच पारस्परिक निर्भरता को दर्शाती हैं, बल्कि एक-दूसरे की आवश्यकता पर भी बल देती हैं। यही आदिवासी-दर्शन की विशिष्टता भी है। एक-दूसरे की परस्पर देखभाल की भावना एवं कृतज्ञता इन कलाकारों की आध्यात्मिक-दार्शनिक-संसारिक अनुभवों से निकलती है। इस कार्यशाला में भाग लेने वाले अधिकतर कलाकार आदिवासी समुदायों से हैं जो देश के विभिन्न सुदूर, दुर्गम एवं सुविधा-रहित क्षेत्रों में निवास करते हैं। जीविका अर्जित करने की बाध्यता के कारण, कई तो अपनी प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाए।
जादोपटिया चित्रकला शैली के निताई चित्रकार यह विश्वास करते हैं कि कलाकार के पास जो भी रंग उपलब्ध हो, अगर एक-दूसरे के साथ साझा करें तो सभी के जीवन में रंग भर सकते हैं। यह रेखांकित किया जा सकता है कि ये पारम्परिक चित्रकार अपनी कला से अपने लोक की कथाएं, किवदंतियों दर्शन आदि को संरक्षित करने का कार्य कर रहे हैं। इस तरह, ये चित्र, कथा वाचक के वे माध्यम है जो मौखिक इतिहास प्रथाओं आदि को कैनवास पर मूर्त रूप में प्रस्तुत करने का कार्य कर रहे हैं। दरअसल वर्तमान गोंड चित्रकला के प्रणेता स्वर्गीय जनगढ़ सिंह श्याम ने यही किया था और अगली पीढ़ी को यही सिखलाया भी।
गहराई में देखने पर जनजातीय कला शैलियां श्रेणी-विभाजन, बहिष्करण एवं उत्पीड़न की भावनाओं का तिरस्कार करती प्रतीत होती हैं। उड़ीसा के सउरा जनजातियों की चित्रकला को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। इस चित्रकला में महिला एवं पुरुष को एक ही रूप में प्रस्तुत करना समाज में प्रचलित लिंग-आधारित विभाजन पर आपत्ति जताता प्रतीत होता है।
वहीं ‘माता-नी-पचदी’ चित्रकला शैली वर्ण व्यवस्था-ब्राहमणवादी बहिष्कार की प्रवृत्ति के विरूद्ध प्रतिकार की सशक्त प्रतीक है। माता-नी-पचदी एक गुजराती शब्द है जिसका अर्थ है – ‘‘देवी पिछड़ों के साथ होती हैं।’’ इस शब्द की उत्पत्ति तब हुई जब एक घुमन्तू समुदाय वछारी को मंदिरों में प्रवेश से रोका गया। तत्पश्चात् इस समुदाय ने अपना स्वयं का धर्मस्थल निर्मित कर लिया। यह एक नई चित्रकला शैली के कारण सम्भव हुआ।
उन्होंने अपनी आराध्या देवी माता के विभिन्न रूपों को कपड़े पर चित्रित करना प्रारंभ किया। अब यह समुदाय उन्हीं चित्रों के घेरे को मंदिर मान कर अपनी पूजा और श्रद्धा का अर्पण करता है। माता-नी-पचदी की यह वास्तविक कहानी समाज में सदियों से गहरे रूप में व्याप्त अदृष्य-हिंसा के विरुद्ध न सिर्फ जागरूक करती है, बल्कि प्रतिकार-प्रतिरोध करने की प्ररेणा भी देती है।
बुद्ध के दर्शन से प्रभावित लद्दाख के चित्रकार द्वारा निर्मित थंगका चित्र मानव सभ्यता के लिए आने वाले खतरों की तरफ सचेत करते हैं। यह चित्रशैली पिघलते ग्लेशियर एवं निरंकुश लोभ को खतरे के रूपक के रूप में और बौद्ध दर्शन को शांति एवं स्थिरता के प्रतीक के रूप में पेश करती है। थंगका कलाकार बौद्ध द्वारा प्रतिपादित भौतिक लालसा से बंधनमुक्त आदर्शों को पुर्नजीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह दर्शन लोभ-लालच-लूट की आर्थिक-जीवन शैली के विपरित एक विकल्प के रूप में अपनों को प्रस्तुत कर रहा है।
केरल के एक चित्रकार की भेंट लद्दाख या नागालैन्ड या राजस्थान के चित्रकार और चित्रकला से होगी ऐसा अब तक संभव नहीं हो रहा था। हर जनजातीय-लोक चित्रकार को यह राष्ट्रीय शिविर वह परिवेश और अवसर उपलब्ध करवा रहा है कि वह एक-दूसरे के कार्य, शैली, शिल्प को देखे, महसूस करे और प्रत्पक्षतः-परोक्षतः कुछ नया-नीवन ग्रहण कर अपनी परम्परागत चित्रषैली को समृद्ध करे।
समकालीन और स्वनामधन्य चित्रकारों के लिए तो ऐसे शिविर देश-विदेश की गैलरियां, आर्ट महाविद्यालय, और काॅरपोरेट घराने नियमित रूप से आयोजित करते रहते हैं। किन्तु, आदिवासी और लोक चित्रकारों की राष्ट्रीय शिविर विरले ही आयोजित होते हैं।
डाॅ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखंड सरकार, का यह शिविर इसी शून्य को भरने का कार्य कर रहा है। इस द्वितीय राष्ट्रीय जनजातीय और लोक चित्रकार शिविर की एक विषेषता यह भी रही कि इसमें पहली बार उत्तर- पूर्व राज्यों (नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल, मेघालय, असम, त्रिपुरा) के चित्रकारों ने अपनी कूची से कैनवासों को एक अलग अतरंगी रंग प्रदान किया। साथ ही इस बार आदिवासी समुदाय के जो आचार्य शान्ति निकेतन, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आदि विश्वविद्यालयों में चित्रकला का शिक्षण कर रहे हैं, उन्होंने भी पहली बार इस शिविर में अपनी बहुमूल्य समय एवं अमूल्य चित्र प्रदान किए।