सदियों पुरानी सभ्यता भारत कई क्षेत्रों में ज्ञान का समृद्ध भंडार है। चिकित्सा क्षेत्र में तो इसे विशेषज्ञता हासिल है। देश के हर कोने में विभिन्न बीमारियों का इलाज कई पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के जरिए किया जाता है। इन्हीं में से एक है होडोपैथी, जो झारखण्ड के आदिवासी समुदाय में खूब प्रचलित रही है।
जैसे-जैसे एलोपैथी ने भारत में अपनी जड़ें मजबूत की हैं, बहुत सी स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियां पीछे छूटती गईं और धीरे-धीरे दम तोड़ गईं। आज, अधिकांश गैर-एलोपैथिक उपचार पद्धतियां मार्केटिंग की कमी से जूझ रही हैं। प्राकृतिक दवाएं केवल विश्वास पर टिकी होती है। होडोपैथी भी इससे अछूती नहीं है।
होडोपैथी विभिन्न जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक उत्पादों का एक बहुत ही कीमती और विस्तृत ज्ञान का भंडार है, जो कैंसर से लेकर मधुमेह तक कई बड़ी बीमारियों को ठीक कर सकता है।
हालांकि, आधिकारिक तौर पर होडोपैथी को चिकित्सा विज्ञान में मान्यता प्राप्त नहीं है, लेकिन अव्यवस्थित क्षेत्र की श्रेणी में यह चिकित्सा पद्धति सबसे अच्छी मानी गई है।
होडोपैथी के एक वरिष्ठ चिकित्सक लॉरेंस सिलास हेम्ब्रम कहते हैं कि होडोपैथी के लाभ और इसकी प्रामाणिकता को दुनिया भर में स्वीकार किया गया है। उनका यह भी दावा है कि एम्स (दिल्ली) और सीएमसी (वेल्लोर) जैसे प्रतिष्ठित अस्पतालों के वरिष्ठ एलोपैथ डॉक्टर समय-समय पर हमसे सलाह लेते हैं।
होडोपैथी किसी भी आयुर्वेदिक, यूनानी, सिद्ध या एलोपैथिक मेडिकल कॉलेज में नहीं पढ़ाई जाती है। हालांकि ग्वालियर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एथनोमेडिसिन होडोपैथी में पीएचडी प्रदान करता है। यह संस्थान भारत सरकार से मान्यता प्राप्त है।
डॉक्टर लॉरेंस सिलास हेम्ब्रम कहते हैं कि आधुनिक समाज में प्राकृतिक चिकित्सा के प्रति उदासीनता, लुप्त हो रहे वन और व्यवस्थित तरीके से मार्केटिंग नहीं होने के कारण यह जनजातीय चिकित्सा पद्धति एक क्षेत्र तक ही सिमट रही है। विरासत में मिली इस बेहद उपयोगी चिकित्सा पद्धति को बचाने और इसे प्रसारित-प्रचारित करने की सख्त जरूरत है।
होडोपैथी को आमतौर पर आयुर्वेद की एक शाखा के रूप में माना जाता है, लेकिन विशेषज्ञों का दावा है कि यह आयुर्वेद से भी पुरानी परंपरा है। प्राचीन काल में जब आयुर्वेदिक वैद्य (डॉक्टर) औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों की तलाश में जंगलों में भटकते हुए बीमार पड़ जाते थे, तो उनका इलाज होडोपैथ द्वारा ही किया जाता था। उनका कहना है कि आज भी हम लोग आयुर्वेदिक चिकित्सकों को इस देसी इलाज से जुड़ी कई आवश्यक जानकारियां देते हैं।
प्राचीन चिकित्सा पद्धति को व्यवस्थित करने की जरूरत
डॉक्टर हेम्ब्रम का कहना है कि प्राचीन काल से होडोपैथी का ज्ञान चिकित्सों से उनके शिष्यों के जरिए अगली पीढिय़ों में मौखिक रूप से चला आ रहा है। गुजरते वक्त के साथ यह चिकित्सकों का पुश्तैनी पेशा बन गया है।
सदियों से इसे लिखित रूप में व्यवस्थित कर सहेजने का प्रयास किया गया है। वर्ष 1895 में अमेरिकी वैज्ञानिक जॉन विलियम हर्षबर्गर ने एक लेख में लिखा था कि होडोपैथी जनजातीय जीवन से जुड़े एथनोबोटनी का ही रूप है। हालांकि भारतीय वैज्ञानिक सुधांशु कुमार जैन ने एथनोमेडिसिन में पौधों के औषधीय उपयोग को शामिल नहीं किया है, जबकि यह आयुर्वेद, यूनानी और सिद्ध की स्थापित प्रणाली है। यह सच है कि झारखण्ड में इन प्रणालियों के लिए कई पौधों का उपयोग आम बात है।
होडोपैथी में लोकप्रिय उपचार
एक अन्य चिकित्सक एसएफ हेम्ब्रम कहते हैं कि हम कैंसर, गठिया, लकवा, थायरॉयड, मधुमेह, हृदय और त्वचा रोग आदि सभी प्रकार की बीमारियों का इलाज करते हैं। वह दावा करते हैं कि हमने कोरोना वायरस संक्रमण का इलाज भी ढूंढ लिया है। उनका यह भी कहना है कि सभी क्षेत्रों के लोग उनके पास आते हैं, क्योंकि उनकी दवाएं सस्ती होती हैं और उनका कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होता है।
हो सकता है होडोपैथी के बारे में लोग कम जानते हों, लेकिन यह बेहद कारगर और विश्वसनीय उपचार है। ब्लैकबेरी यानी जामुन से बनी शराब या सीरप और इसके बीजों का सूखा पाउडर दोनों ही मधुमेह के रोगियों के लिए बेहद अच्छे माने जाते हैं। झारखंड में प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली चिरैता जड़ी बूटी भी रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने, शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता बढ़ाने, त्वचा विकारों को दूर करने और यकृत एवं पाचन तंत्र की समस्याओं को दूर करने के लिए बहुत ही गुणकारी समझी जाती है। यहां पाई जाने वाली कुछ जड़ी-बूटियां पुराने से पुराने शराबी की शराब छुड़ाने में मददगार साबित होती हैं।
टूटी हड्डियों को जोडऩे के लिए ग्रामीण अक्सर चूना पत्थर के पाउडर और हल्दी के पेस्ट का उपयोग करते हैं। यही नहीं, आम लोगों को यहां की जड़ी-बूटियों पर इतना अधिक भरोसा है कि हर्बल तरीके से सेवाएं देने वाले अधिकांश ब्यूटी पार्लर खूब अच्छा कारोबार कर रहे हैं।
झारखंड में लगभग हर जनजाति की अपनी पारंपरिक उपचार प्रणाली है, जो उसके अपने परिवेश में पाई जाने वाली जड़ी-बूटियों पर आधारित होती है। हालांकि, उरांव जनजाति यह दावा करती है कि उसके पास ऐसे पारंपरिक तरीके से उपचार की अधिक विशेषज्ञता है।
पुराना सोना हमेशा खरा
हाल ही में सामाजिक कार्यों में लगे कई गैर-सरकारी और गैर-राजनीतिक संगठनों एवं निकायों ने भी राज्य की पारंपरिक उपचार प्रणालियों को पुनर्जीवित करने की पहल शुरू की है। इसके तहत वे समय-समय पर चिकित्सकों के लिए प्रशिक्षण शिविर भी आयोजित करते हैं।
जैसे-जैसे जंगल गायब होते जा रहे हैं, होडोपैथी के चिकित्सक अपने परिसरों में जड़ी-बूटियां और औषधीय पौधे लगाने लगे हैं, ताकि आगे चलकर उन्हें दिक्कतें पेश न आएं। रांची, गिरिडीह, साहिबगंज, पाकुड़, हजारीबाग, गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा, देवघर, सरायकेला-खरसावां और पश्चिमी सिंहभूम जैसे जिलों में जड़ी-बूटियों एवं औषधीय पौधों की अनेक नर्सरी स्थापित हो चुकी हैं।