समाज धीरे-धीरे सशक्त हो रहा है। उसमें व्यापक स्तर पर बदलाव देखने को मिल रहा है और अच्छी बात यह है कि इस उत्थान की ध्वज वाहक महिलाएं बन रही हैं। रांची जिले के एक छोटे से गांव में ऑटोरिक्शा चालक की पत्नी और तीन बच्चों की मां सरिता देवी को ही ले लीजिए। स्वयं सहायता समूह चलाने वाली 30 वर्षीय सरिता देवी ने कोरोना महामारी के दौरान थैले में अपनी दुनिया समेटे पलायन कर रहे मजदूरों का रेला देखा तो तड़प उठीं। खुद आगे बढक़र उनकी मदद का बीड़ा उठाया और संकट के समय लगभग तीन महीने तक राह चलते मजबूर मजदरों को मुफ्त खाना मुहैया कराया।
यदि हम इसी तरह परेशानियों का थोड़ा-थोड़ा भार अपने कंधों पर उठा लें तो कितने ही लोगों की जिंदगी आसान हो जाएगी।
सरिता याद करते हुए बताती हैं कि जब वह बमुश्किल 14 साल की थीं, उसी समय उनकी शादी हो गई थी। वह मैट्रिक पास हैं। अब 30 वर्ष की हो चुकीं सरिता के दो बेटे और एक बेटी हैं।
स्वयं सहायता समूह चला रही सरिता देवी बताती हैं कि जब महामारी ने अंगड़ा प्रखंड के मसूर गांव में दस्तक दी, तो उन्हें गहरा धक्का लगा। शहरों से घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों के दृश्य देख वह व्याकुल हो गई थीं। उन्होंने मदद का बीड़ा अपने हाथों में उठाया।
सरिता बताती हैं कि अप्रैल-मई 2020 की पहली कोरोना लहर के दौरान बड़े पैमाने पर पलायन करते मजदूरों की कठिनाइयां देखकर उनका दिल बहुत परेशान हो गया था। लॉकडाउन लगने से घर लौट रहे या रास्तों, परदेस में फंसे लाखों भूखे-प्यासे लोगों की दुर्दशा उनसे देखी नहीं जा रही थी।
महामारी के चरम के दौरान लगभग तीन महीने तक उन्होंने परेशान हाल लोगों को मुफ्त भोजन कराया। झारखंड सरकार की मुख्यमंत्री दीदी रसोई योजना के तहत चलने वाली उनकी सामुदायिक रसोई में उनके स्वयं सहायता समूह से नियमित रूप से केवल दो सदस्य उनकी मदद करते थे और प्रतिदिन 150-200 लोग उनकी रसोई का बना खाना खाते थे।
एक कोरोना योद्धा के रूप में इस तरह निस्वार्थ कार्य करने का कारण बिल्कुल सरल है। सरिता देवी कहती हैं, मुझे खुशी है कि मैंने उनकी मदद करने के लिए अपनी पूरी कोशिश की और उनकी जिंदगी के एक छोटे से हिस्से में मदद कर सकी।
यदि हम इसी तरह थोड़ा-थोड़ा भार अपने कंधों पर उठा लें तो कितने ही लोगों की जिंदगी आसान हो जाएगी।