नई दिल्ली
वर्ष 2005 में जब छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा के खिलाफ़ सरकार-समर्थित सलवा जुडुम आंदोलन शुरू हुआ, तब अनुमानित 50,000 आंतरिक रूप से विस्थापित आदिवासी सीमापार भागकर तत्कालीन संयुक्त आंध्र प्रदेश में शरण लेने को मजबूर हुए। 2014 में राज्य विभाजन के बाद वे तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बिखर गए।
मुरिया कहलाने वाले ये आदिवासी छत्तीसगढ़ के सबसे नक्सल-प्रभावित ज़िलों—सुकमा, बीजापुर और दंतेवाड़ा—से थे, जहाँ उन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा प्राप्त था। लेकिन आंध्र और तेलंगाना में इन्हें गुट्टी कोया कहा जाने लगा और इन राज्यों में इनके पास ST का दर्जा नहीं है।
दो दशकों से छत्तीसगढ़ छोड़कर आंध्र और तेलंगाना में रह रहे गुट्टी कोया आदिवासी आज भी न तो पूरी तरह अपने हैं, न ही पराए। उनकी यह विस्थापन गाथा भारत की आंतरिक सुरक्षा, पर्यावरण और आदिवासी अधिकारों के बीच उलझा हुआ एक बड़ा सवाल बन चुकी है।
सलवा जुडुम असफल, आदिवासी आज भी बेघर
विद्रोह समाप्त करने के लिए बनाए गए सलवा जुडुम अपने उद्देश्य में विफल रहा और 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे भंग कर दिया। लेकिन बीते 20 वर्षों से गुट्टी कोया आदिवासी बेगानेपन का जीवन जी रहे हैं। उनका कहना है कि उन्हें अतिक्रमणकारी माना जाता है, उनके घर तोड़े जाते हैं और खेती की ज़मीन छीनी जाती है।
तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के वन अधिकारियों का कहना है कि गुट्टी कोया जंगलों को साफ़ कर वाणिज्यिक वृक्षारोपण वाली ज़मीनों पर खेती करने लगते हैं।
शुभ्रांशु चौधरी, जो लंबे समय से इनके बीच काम कर रहे हैं, स्वीकार करते हैं कि अतिक्रमण होता है लेकिन कहते हैं, “ये लोग जाएँ तो जाएँ कहाँ? हिंसा ने इन्हें उजाड़ दिया, अब इनके पास और कोई सहारा नहीं है।”
जीवनभद्राद्री कोठागुडेम ज़िले में वालसा अधिवासुला समैक्य संगठन से जुड़े मदवी हीरेश बताते हैं, “तेलंगाना का वन विभाग हमें वृक्षारोपण के लिए निकालना चाहता है। ज़्यादातर गुट्टी कोया मज़दूरी करते हैं और थोड़ी ज़मीन पर धान व कपास जैसी फसलें उगाते हैं। लेकिन यह खेती अवैध मानी जाती है क्योंकि FRA (वन अधिकार अधिनियम) के तहत हमारे पास ज़मीन के दस्तावेज़ नहीं हैं। समय-समय पर हमारे घर तोड़े जाते हैं।”

वर्ष 2022 में बने इस संगठन ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में गुट्टी कोया आदिवासियों का सर्वे किया। इसमें सामने ये तथ्य:
- विस्थापित परिवारों की संख्या: 9651
- कुल आबादी: 48,300 लोग
- अनधिकृत बस्तियाँ: 283
संगठन ने 8 सितंबर को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) को पत्र लिखकर पुनर्वास पैकेज, ST दर्जा और FRA की धारा 3(1)(m) के तहत भूमि का नियमितीकरण करने की मांग की।
वन विभाग से लगातार टकराव
गुट्टी कोया आदिवासी जंगलों को साफ़ करके खेती और आवास बनाते हैं, जिससे उनकी वन अधिकारियों से झड़पें आम हो गई हैं। नवंबर 2022 में भद्राद्री कोठागुडेम ज़िले में ऐसी ही एक झड़प में एक रेंज अधिकारी की हत्या हो गई।
तेलंगाना के मुलुगु ज़िले में
- गुट्टी कोया बस्तियाँ: 72
- कब्ज़ा किया गया क्षेत्र: 9000 एकड़
- इनमें से 36 बस्तियाँ एटनगरम वाइल्डलाइफ़ सैंक्चुअरी के भीतर
वन विभाग का कहना है कि इससे जैवविविधता और कार्बन संरक्षण को नुकसान हो रहा है।


“ना जनजाति, ना अधिकार”
तेलंगाना में गुट्टी कोया के पास वोटर और आधार कार्ड तो हैं, लेकिन ST का दर्जा नहीं। FRA के तहत ज़मीन का स्वामित्व भी नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी मेघाली दास कहती हैं, “इन विस्थापितों के लिए कोई विशेष क़ानून या नीति नहीं है। इसी वजह से वे लगातार अधिकारविहीन और ‘स्टेटलेस’ स्थिति में जी रहे हैं।”
छत्तीसगढ़ लौटने का विकल्प? बस्तर IG पी सुंदरराज के अनुसार, “कई लोग सलवा जुडुम के समय जान बचाने भागे थे। अब वे आंध्र और तेलंगाना में बस चुके हैं और लौटना नहीं चाहते। लेकिन नक्सली हिंसा घटने के साथ कुछ लोग वापस जाकर अपनी छोड़ी हुई ज़मीन जोत सकते हैं।”
नक्सलवाद की मौजूदा स्थिति
- अप्रैल 2025 तक नक्सल प्रभावित ज़िलों की संख्या घटकर 38 रह गई है।
- इनमें सबसे प्रभावित ज़िले अब सिर्फ 6 हैं—बीजापुर, कांकेर, नारायणपुर, सुकमा (छत्तीसगढ़), पश्चिम सिंहभूम (झारखंड) और गडचिरोली (महाराष्ट्र)।
- दंतेवाड़ा अब ‘अन्य नक्सल प्रभावित ज़िलों’ की श्रेणी में है।
- केंद्र सरकार ने 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद खत्म करने का लक्ष्य तय किया है।