नई दिल्ली/रांची
कर्मा पूजा — जिसे करम और करम परब भी कहा जाता है — भारत के सबसे महत्वपूर्ण आदिवासी त्योहारों में से एक है। यह मुख्य रूप से झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम में मनाया जाता है और इसका संबंध है कर्मा देवता से, जिन्हें युवा, शक्ति और उर्वरता का देवता माना जाता है।
इस वर्ष कर्मा पूजा 3 सितंबर को मनाई जाएगी।
आदिवासी समाज के लिए कर्मा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि जीवंत परंपरा है, जो उन्हें प्रकृति, मिथकों, संगीत और उल्लास से जोड़ती है। आज भी यह पर्व आदिवासी अंचलों में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। रांची, जमशेदपुर, रायपुर और राउरकेला जैसे शहरों में आदिवासी संगठन सार्वजनिक समारोह आयोजित करते हैं, जिनमें हजारों लोग शामिल होते हैं। प्रवासी आदिवासियों के लिए यह त्योहार पहचान और गौरव का प्रतीक बन चुका है।
कर्मा पूजा का मूल
कर्मा पूजा का केंद्र है कर्मा वृक्ष, जिसे जीवन, समृद्धि और उर्वरता का प्रतीक माना जाता है। युवा पुरुष और महिलाएँ जंगल से इसकी शाखाएँ लाते हैं और इन्हें गाँव के अखाड़ा (नृत्य स्थल) या आँगन में गाड़कर पूजा करते हैं।

प्रमुख अनुष्ठान
- अविवाहित लड़कियाँ अपने भाइयों की दीर्घायु और सुख-समृद्धि के लिए व्रत और शुद्धिकरण करती हैं।
- कर्मा शाखा की पूजा दूध, चावल, फूल और देशी शराब से होती है।
- पूरी रात मदल, मंदर, नगाड़ा और पारंपरिक गीतों के साथ कर्मा शाखा के चारों ओर नृत्य होता है।
- सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता है, जिसमें कोदो-ज्वार जैसे मिलेट्स, हांड़िया (चावल की बियर) और मांसाहारी व्यंजन प्रमुख रहते हैं।
कौन-कौन सी जनजातियाँ मनाती हैं कर्मा?
इस पर्व को अनेक आदिवासी समुदाय मनाते हैं, जिनमें उरांव, मुंडा, हो, संथाल, खड़िया, खरवार, बैगा, गोंड, कोल, महली, बिरहोर, असुर, भूमिज और कुरुख शामिल हैं। हर जनजाति अपने विशेष गीत, कथाएँ और परंपराएँ जोड़ती है, जिससे यह त्योहार विविधता में एकता का जीवंत उदाहरण बनता है।
अलग-अलग राज्यों में कर्मा का रंग
- झारखंड: कर्मा का सांस्कृतिक केंद्र माना जाता है। यहाँ लड़कियों का व्रत, कर्मा शाखा की स्थापना और अखाड़े में जबरदस्त नृत्य इसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा और खूंटी जैसे इलाकों में पूरा गाँव पूरी रात जागकर पर्व मनाता है।
- छत्तीसगढ़: यहाँ इसे कर्मा जात्रा कहते हैं। गोंड और बैगा जनजातियाँ भव्य शोभायात्राएँ निकालती हैं और लोकनाट्यों के जरिए कर्मा देवता की कथाएँ प्रस्तुत करती हैं।
- ओडिशा: यहाँ भुईयाँ और बथुड़ी जनजातियों में यह पर्व फसल उत्सव से जुड़ जाता है। महिलाएँ उर्वरता की देवी की पूजा में अग्रणी भूमिका निभाती हैं।
- मध्य प्रदेश: गोंड और बैगा यहाँ कर्मा मनाते हैं, जहाँ पारंपरिक शराब और मिलेट से बने पकवान अर्पण में शामिल होते हैं। कई जगह उत्सव कई दिनों तक चलता है।
- बिहार: दक्षिणी आदिवासी इलाकों में लड़कियाँ कड़े व्रत रखकर परिवार की समृद्धि के लिए कर्मा वृक्ष की पूजा करती हैं।
- पश्चिम बंगाल और असम: यहाँ संथाल, मुंडा और उरांव समुदाय इसे सामुदायिक नृत्य और लोकनाट्य के साथ खुले मैदानों में मनाते हैं।

परंपराओं में अंतर
- उपवास: झारखंड और बिहार में उपवास प्रमुख है, जबकि छत्तीसगढ़ और ओडिशा में शोभायात्रा और नृत्य प्रमुख हैं।
- महिलाओं की भूमिका: बिहार और ओडिशा में बहनों का व्रत मुख्य है, जबकि झारखंड और छत्तीसगढ़ में युवतियाँ और युवक दोनों समान रूप से नृत्य और उत्सव में भाग लेते हैं।
- भोजन और पेय: मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्थानीय शराब और मिलेट व्यंजन प्रधान हैं, जबकि झारखंड में हड़िया (चावल की बियर) का महत्व है।
- कथाएँ और लोकनाट्य: छत्तीसगढ़ में कर्मा देवता की कथाओं पर आधारित लोकनाट्य आम है।
कर्मा से जुड़ी लोककथाएँ और मिथक
- सात भाइयों की कथा: सात भाइयों ने अपनी पत्नियों और खेतों की उपेक्षा की। सबसे छोटे भाई ने कर्मा वृक्ष की पूजा की और उसे समृद्धि मिली। बड़े भाइयों ने ईर्ष्या में पेड़ काट डाला और दुर्भाग्य का शिकार हो गए। फिर दोबारा पूजा करने पर सुख-समृद्धि लौटी। यह कथा प्रकृति और सामुदायिक एकता के महत्व को दर्शाती है।
- युवाओं के संरक्षक कर्मा देवता: विश्वास है कि कर्मा देवता युवाओं को शक्ति, उर्वरता और सामाजिक सौहार्द का आशीर्वाद देते हैं। इसलिए युवाओं की भागीदारी सबसे अधिक होती है।
- उर्वरता और फसल: यह पर्व कृषि चक्र से जुड़ा है। कर्मा वृक्ष की पूजा अच्छी फसल और आपदाओं से रक्षा सुनिश्चित करती है।

धर्म से परे: सांस्कृतिक, सामाजिक और पारिस्थितिक महत्व
- सामाजिक जुड़ाव: कर्मा युवाओं, मित्रता और सामुदायिक भावना का पर्व है, जो गाँवों में एकजुटता को मजबूत करता है।
- सांस्कृतिक अभिव्यक्ति: आदिवासी कला, वेशभूषा, आभूषण और संगीत इस अवसर पर सबसे सुंदर रूप में सामने आते हैं।
- पर्यावरणीय संदेश: कर्मा वृक्ष की पूजा के जरिए आदिवासी समाज जंगलों और प्रकृति से अपने गहरे रिश्ते को फिर से पुष्ट करता है। यह स्थायी जीवन और पर्यावरण संरक्षण की याद भी दिलाता है।