बालाघाट/मंडला
दूर-दूर तक फैले जंगलों के बीच यह ऐसा सुरम्य स्थान है जहां मिट्टी से लेकर मेहमाननवाजी तक में प्रकृति की खुशबू और खूबसूरती मन मोह लेती है। गांवों में निकलेंगे तो घरों की दीवारों पर वन्यजीवों और ग्रामीण जीवन को दर्शाती कला आगंतुकों का स्वागत करती है। ऐसे ही प्राकृतिक नजारों वाले देश के सबसे मशहूर बाघ अभयारण्यों में से एक कान्हा टाइगर रिजर्व के अंदर एक स्कूल चल रहा है जिसकी दीवारें भी बोलती सी प्रतीत होती हैं और वन्य जीव संरक्षण का संदेश देती हैं।
अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले स्कूल का मकसद युवाओं में पर्यावरण के प्रति जागरूकता और जानवरों के प्रति प्रेम की जोत जगाना है। नाम है- भूरसिंह पब्लिक स्कूल। वर्ष 2017 में स्थापित इस शिक्षाशाला का संचालन कान्हा वर्कर्स सोसाइटी की ओर से किया जा रहा है। इसका नाम बारहसिंगा (हार्ड ग्राउंड स्वैम्प हिरण) के सम्मान में रखा गया है, जो मध्य प्रदेश के बालाघाट और मंडला जैसे जिलों में फैले कान्हा टाइगर रिजर्व का आधिकारिक शुभंकर है।
कान्हा की धरोहर कहे जाने वाले मक्की वन विश्राम गृह में चाय की चुस्की लेते हुए वन रक्षक लक्ष्मी मरावी ने स्कूल के प्रबंधन से जुड़े अपने अनुभव The Indian Tribal के साथ साझा किए। उन्होंने बताया कि इस स्कूल में वर्तमान में लगभग 102 छात्र पढ़ते हैं। अभी नर्सरी से कक्षा 3 तक की कक्षाएं संचालित हो रही हैं। मरावी ने बताया, ‘इस स्कूल को कम से कम कक्षा 5 तक अपग्रेड करने की योजना है, लेकिन अभी जगह की कमी के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। यहां से उत्तीर्ण होने के बाद छात्र आगे की पढ़ाई के लिए बाघ अभयारण्य के पास बने अन्य अंग्रेजी माध्यम स्कूलों या केंद्रीय विद्यालय में दाखिला ले लेते हैं।’

आदिवासी बच्चों के लिए जीवन रेखा
कान्हा के मक्की गांव में स्थित भूरसिंह पब्लिक स्कूल में वर्तमान में 6 शिक्षक पढ़ा रहे हैं। इनमें से एक शिक्षक संतोष ठाकरे ने बताया कि इस स्कूल में 15 किलोमीटर दूर तक से छात्र पढ़ने आते हैं। ठाकरे भी पहले बाघ अभयारण्य में एक रिसॉर्ट से जुड़े थे, लेकिन बाद में उन्होंने बी.एड. की डिग्री पूरी की और दो साल तक पढ़ाया। वह कान्हा से लगभग 15 किलोमीटर दूर बैहर में रहते हैं। संतोष ठाकरे अब इस स्कूल का हिस्सा हैं। वह कक्षा 1 से 3 तक के छात्रों को अंग्रेजी, गणित तथा कंप्यूटर पढ़ाते हैं।
उन्होंने कहा, ‘मुझे स्कूल में पढ़ाना बहुत पसंद है। इससे मुझे बहुत संतुष्टि मिलती है। आदिवासी छात्रों को कभी-कभी अंग्रेजी और हिंदी सीखने में कठिनाई होती है, लेकिन मैं उन्हें बेहद दोस्ताना तरीके से पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता हूं। वैसे कई छात्र हिंदी भी समझते हैं, क्योंकि यह इस क्षेत्र में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है।’
हालांकि स्कूल की फीस 3000 रुपये के आसपास रखी गई है, लेकिन यह ज्यादातर दान के पैसों से अपना खर्च निकालता है। खेल किट और वाटर कूलर के अलावा एक स्कूल बस और वैन दानकर्ताओं ने दी है। यह बस और वैन बड़े काम की हैं, जो बच्चों को दूर-दूर से लाने और ले जाने में मददगार साबित होती हैं।
ठाकरे बताते हैं कि स्कूल की फीस इतनी नहीं है कि अभिभावक दे न पाएं। क्योंकि अधिकांश बच्चों के माता-पिता यहीं कान्हा में गाइड के रूप में काम करते हैं। बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जिनके पास खेती की जमीन हैं या दुकान चलाते हैं। अनेक लोग बाहर कमाते हैं और बच्चों की पढ़ाई एवं घर खर्च के लिए पैसे भेजते हैं।
समर कैंप से स्कूल तक का सफर
आशु बिसेन तीन साल तक स्कूल की प्रधानाध्यापिका रही हैं। उनके पति वन विभाग में काम करते हैं। वह बताती हैं, ‘प्रबंधन का काम सहायक निदेशक अजय ठाकुर और लक्ष्मी संभालते हैं। मैं मुख्य रूप से बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करती हूं।’

बिसेन ने The Indian Tribal से बातचीत में कहा कि अभी तक यह स्कूल सीबीएसई पैटर्न पर पढ़ाई करा रहा है, लेकिन इसका पंजीकरण चूंकि मध्य प्रदेश की सरकार के अधीन है, इसलिए आने वाले समय में यहां एनसीईआरटी की किताबें पढ़ाई जाएंगी।
स्कूल बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। जंगलों के बीच यहां छात्रों के लिए समर कैंप आयोजित करने की योजना बनाई जा रही थी, ताकि वे प्रकृति के बारे में अधिक से अधिक जानें और उसके प्रति उनमें लगाव पैदा हो। लेकिन फिर 2017 में एक रेंज क्वार्टर में स्कूल शुरू किया गया और 2018 में इसका पंजीकरण हो गया। स्कूल शुरू करने का विचार मुख्य रूप से सुरेंद्र कुमार खरे के दिमाग की उपज था, जो अब कान्हा टाइगर रिजर्व से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वह इस समय भोपाल में मध्य प्रदेश टाइगर फाउंडेशन से जुड़े हैं।
सात साल से स्कूल की प्रभारी लक्ष्मी मरावी ने बताया कि यहां सोमवार से शनिवार सुबह 9.30 बजे से दोपहर 12.30 बजे तक कक्षाएं लगती हैं। उन्होंने कहा, ‘चूंकि वन विभाग पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करता है, इसलिए मेरी वर्तमान जिम्मेदारी में शिक्षा और पर्यावरण दोनों के लिए काम करना शामिल है। यह एक बेहतरीन विचार है, जो मुझे भी काफी सुकून देता है। बच्चों के साथ रहना बहुत अच्छा लगता है। दीवारों पर
पेंटिंग के बारे में पूछे जाने पर मरावी ने बताया कि यह काम कलाकार मनोज गडपाल का है। वे बहुत लोकप्रिय हैं और प्रदर्शनी लगाते हैं। उन्होंने ही स्कूल की दीवारों को प्राकृतिक सुंदरता से नवाजा है।