नारायणपुर
ईश्वरी गोदरा के पति आटा चक्की चलाते हैं। इसमें गेहूं पीसकर आटा तैयार किया जाता है। इससे आमदनी तो होती है, लेकिन उनका परिवार बड़ा है। इसके लिए यदि थोड़ी-बहुत अतिरिक्त आय और भी हो जाए तो परिवार को आर्थिक सहारा मिले।
हलबा आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली ईश्वरी छत्तीसगढ़ के बस्तर उप-मंडल में आदिवासी बहुल नारायणपुर जिले से आती हैं। यह इलाका काफी समय से वामपंथी उग्रवाद के लिए कुख्यात है।
ईश्वरी जैसी महिलाओं को बेहतर आजीविका कमाने में मदद करने के लिए वर्ष 2018 में तत्कालीन प्रभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) स्टाइलो मंडावी ने झाड़ू बनाने की पहल शुरू की थी।
स्टाइलो ने The Indian Tribal को बताया, ‘जब मैं यहां तैनात था तो उस समय कई महिलाएं पहले से ही झाड़ू (खासकर फूल झाड़ू) बनाने के काम से जुड़ी थीं। मैंने इस काम को सुव्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ाने की ठान ली। इसलिए, मैंने महिलाओं को थोड़ी आर्थिक मदद दी, जिससे उन्होंने परियोजना के लिए आवश्यक घास खरीदी और अपने काम के लिए एक शेड भी बनवाया। इसके बाद वन विभाग ने उन्हें छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज (व्यापार और विकास) सहकारी संघ लिमिटेड के अंतर्गत एक छत के नीचे लाकर संगठित किया।’
स्टाइलो के अनुसार, घास संग्रह का काम जिले के ब्लॉक ओरछा में किया जाता था और झाड़ू बनाने का काम नारायणपुर ब्लॉक में होता था। उस समय कई स्वयं सहायता समूहों को इस परियोजना में शामिल किया गया, ताकि महिलाओं को काम करने और अपना मेहनताना हासिल करने में कुछ आसानी हो जाए।
ईश्वरी ऐसे ही एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) जगदम्बा स्वयं सहायता समूह से जुड़ी हैं। इस समूह को 10 महिलाएं मिलकर सन 2007 से चला रही थीं, लेकिन उनके पास इसके लिए कोई ठोस योजना नहीं थी। ऐसे में उन्हें एक ऐसे संगठन की जरूरत थी, जो उन्हें बेहतर रास्ता दिखाए।
ईश्वरी बताती हैं, ‘पहले पहल हमें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन अब हमारे स्वयं सहायता समूह की महिलाएं ठीक-ठाक आमदनी कर लेती हैं। हमारे द्वारा बनाई जाने वाली झाड़ू बाजार में 30 से 40 रुपये में बिक जाती है और प्रत्येक झाड़ू पर सात रुपये की बचत होती है।’
काम की चुनौतियों को लेकर ईश्वरी बताती हैं कि कभी-कभी व्यापारी स्वयं झाड़ू खरीदने के लिए यहां आ जाते हैं और कभी-कभी हमें भी हाट बाजार जाना पड़ता है। हाट बाजार बस्तर के मशहूर स्थानीय साप्ताहिक बाजार होते हैं। यदि व्यापारी स्वयं हमारे यहां आ जाते हैं तो यह अच्छा रहता है, क्योंकि अगर हम खुद बाजार जाते हैं तो हमें आने-जाने में पैसे खर्च करने पड़ते हैं। इसलिए हमारी कोशिश होती है कि व्यापारियों को अपने गांव ही बुलाया जाए, ताकि किराये का पैसा बच जाए।
अच्छी गुणवत्तापूर्ण फूल झाड़ू बनाने के लिए बड़ी मात्रा में पहाड़ी झाड़ू घास की जरूरत होती है। ईश्वरी कहती हैं कि ओरछा में झाड़ू घास खूब होती है। एक बार हमारे यहां से महिलाएं घास खरीदने वहां गई थीं। अब यह काम भी काफी व्यवस्थित हो गया है, क्योंकि वन विभाग द्वारा खड़े किए गए स्वयं सहायता समूहों में यह घास आसानी से उपलब्ध हो जाती है। इससे महिलाओं की परेशानी काफी कम हो गई।
वन धन प्रबंधक के रूप में इस योजना की प्रभारी कोमल उसंडी ने The Indian Tribal को बताया कि घास खरीदने के लिए वह कई बार ओरछा गई हैं। ट्राइफेड के तहत वन धन योजना देश के 27 राज्यों और 307 जिलों में चल रही है। इसका मुख्य उद्देश्य असंगठित छोटे कामों को प्रोत्साहित एवं व्यवस्थित कर आदिवासी समुदायों की आजीविका की राह खोलना है।
लगभग एक साल से परियोजना का काम संभाल रही कोमल कहती हैं, ‘झाड़ू बनाने वाली घास बाइक या बड़े वाहनों पर लादकर लाई जाती है और उसे यहां नारायणपुर में एकत्र कर लेते हैं। जैसे-जैसे जरूरत होती है, महिलाएं भंडार से घास लेकर अपने इस्तेमाल में लाती हैं। हम लोग कभी-कभी एक दिन में 10 क्विंटल घास भी खरीद लेते हैं, जो लगभग एक महीने तक चल जाती है। एक क्विंटल घास 5,000 रुपये में मिलती है।’
जगदम्बा स्वयं सहायता समूह की महिलाएं इस समय चार तरह की झाड़ू बना रही हैं। इनमें से कुछ झाड़ू प्लास्टिक के हैंडल वाली होती हैं, जबकि कुछ सिर्फ हाथ से बांधी जाती हैं। अब झाड़ू बनाने के लिए पहाड़ी झाड़ू घास के अलावा अन्य तरह की घास भी इस्तेमाल में लायी जा रही है।
कोमल कहती हैं कि धान की कटाई के बाद खेतों में उगने वाली लंबी घास का इस्तेमाल भी महिलाएं झाड़ू बनाने में करती हैं। इस घास को उसरी कहते हैं। वैसे इस घास की बनी झाड़ू मुख्य रूप से आदिवासी घरों में ही प्रयोग में लायी जाती है।
जगदम्बा स्वयं सहायता समूह की सदस्य पूर्णिमा गोदरा बताती हैं कि हमारा समूह पिछले पांच साल से वन विभाग से जुड़ा हुआ है। वह कहती हैं, ‘समूह की कुछ महिलाएं जहां एक दिन में 15 झाड़ू तैयार कर लेती हैं तो कई 20 पीस भी बना लेती हैं। स्वयं सहायता समूह पूरी बिक्री का हिसाब-किताब रखता है।’
जगदम्बा समूह यूं तो सन 2007 से ही यहां संचालित है, लेकिन शुरुआत में इसे मार्केटिंग संबंधी अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पूर्णिमा बताती हैं, ‘व्यापारी हमें झाड़ू की बहुत कम कीमत देते थे। विभाग से जुड़ने के बाद हमारी यह समस्या हल हो गई और अब हमारा सामान अच्छी कीमत पर आसानी से बिक जाता है।’
पूर्णिमा कहती हैं कि स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाएं आमतौर पर सुबह 10 बजे काम पर आ जाती हैं और शाम 5.30 बजे चली जाती हैं। इस तरह वे अपने परिवार की देखभाल भी कर लेती हैं और काम कर अतिरिक्त आमदनी भी करती हैं। हाल के वर्षों में इस काम में कमाई अच्छी हुई है, लेकिन महिलाओं की कड़ी मेहनत को देखते हुए लाभ का मार्जिन और बढ़ाने की आवश्यकता है।
हालांकि इस क्षेत्र के हालात को देखते हुए यहां की महिलाएं काफी अच्छा काम कर रही हैं। पूर्व में यहां तैनात रहे एक वन अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘ओरछा वामपंथी उग्रवाद से इस कदर घिरा रहा है कि यहां से गुजरना मुश्किल हो जाता है। कई गांवों में तो प्रवेश करना भी आसान नहीं होता।’
ऐसे में यदि यहां की महिलाएं धीरे-धीरे अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं, तो यह बड़े सकारात्मक बदलाव का संकेत है। आंकड़ों से पता चलता है कि 2023 में मई से दिसंबर के बीच कुल 20,055 झाड़ू बेची गईं, जिनसे 6,28,246 रुपये की आय हुई।
(सभी तस्वीरें छत्तीसगढ़ वन विभाग द्वारा उपलब्ध कराई गईं)