रांची
प्रतिभाशाली डॉ. मनीषा उरांव की पहचान सिर्फ अपने पेशे यानी डेंटल सर्जन के तौर पर ही नहीं है, उनके कई अवतार हैं, जिन्हें वह अपनी व्यस्त दिनचर्या में भी सहजता से जी लेती हैं और बखूबी हर भूमिका में ढल जाती हैं। वह एक डेंटल सर्जन होने के साथ-साथ सफल व्यवसायी, आईआईएम संकाय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता भी हैं यानी ऑल इन वन।
अपने पायलट पति अभिषेक के साथ मिलकर राज्य की राजधानी रांची से लगभग 64 किलोमीटर दूर खूंटी में ‘द ओपन फील्ड’ फार्म-टू-टेबल भोजनालय चला रही हैं 34 वर्षीय डॉ. मनीषा। उनका भोजनालय रांची-टाटा राष्ट्रीय राजमार्ग पर प्रतिष्ठित देवरी मंदिर के करीब स्थित है। महान क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धोनी के नियमित रूप से माथा टेकने आने के कारण देवरी मंदिर अब खूब प्रसिद्ध हो गया है।
डॉ. मनीषा का रेस्टोरेंट खाने-पीने का कोई सामान्य ठोर नहीं है। यह कृषि और इको पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ-साथ अपनी पहचान खो रहे झारखंडी व्यंजनों को परोसने के लिए भी जाना जाता है। कुछ हफ्ते पहले ही उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, रांची की ओर से आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में ये व्यंजन पेश कर खूब सराहना बटोरी।
एसआरएम यूनिवर्सिटी, चेन्नई से 2013 में पास हुईं मनीषा The Indian Tribal को बताती हैं, ‘एक व्यवसायी के तौर पर उनकी यात्रा बहुत ही संघर्ष और साहस के रंगों से भरी रही।’ उन्हें खाने के कारोबार का पहले से कोई अनुभव नहीं था। बीडीएस (बैचलर ऑफ डेंटल सर्जरी) के तीसरे और चौथे वर्ष की पढ़ाई के समय उन्हें दूरदराज के गांवों में जाने का मौका मिला। उन्होंने विदेशों के साथ-साथ घरेलू स्तर पर लद्दाख से असम तक की यात्राएं की। इसके अलावा बेंगलूरु में स्वास्थ्य स्टार्ट-अप में नौकरी के दौरान उन्हें यह भी पता चल गया था कि स्टार्ट-अप परियोजनाएं कितनी महत्वपूर्ण और लाभकारी होती हैं। यहीं नौकरी करते हुए उन्होंने इन स्टार्ट-अप की कार्यप्रणाली, लाभ कमाने का हुनर तथा कृषि क्षेत्र से जुड़ी अन्य तमाम बारीकियां सीखी, समझीं।
वह बताती हैं, ‘अपने गृहनगर वापस आने के बाद उन्होंने खाद्य व्यवसाय में कदम रखा और ‘द ओपन फील्ड’ की शुरुआत की। उनके भोजनालय में ताजा सब्जियों से खाना तैयार होता है, जो सीधे उनके अपने खेतों से आती हैं।’ इससे पहले मनीषा अपनी 20 एकड़ कृषि भूमि पर गुलाब की खेती कर चुकी हैं, परंतु उसमें उन्हें खास सफलता नहीं मिली थी।
वह विस्तार से बताती हैं, ‘दुनियाभर में भ्रमण के दौरान उन्होंने देखा कि लोगों की खाने की आदतें उनकी संस्कृति और सामाजिक पहचान से जुड़ी होती हैं। हालांकि, बढ़ते शहरीकरण के इस दौर में ये परंपराएं और देसी व्यंजनों के जायके लुप्त होते जा रहे हैं। इससे मेरे अंदर एक बेचैनी पैदा हुई। फिर मैंने लोगों को प्रकृति से मिलने वाले सुपर-फूड्स के बारे में बात करते सुना। मुझे अहसास हुआ कि आदिवासी समुदाय से होने के नाते यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं प्रकृति से जुड़े अपने अनूठे भोजन के स्वाद को दुनिया के साथ साझा करूं और इसे संरक्षित करने के रास्ते तलाश करुं। इस तरह झारखंड के विलुप्त हो चुके व्यंजनों को दोबारा परोसना और इन्हें संरक्षित करना जैसे मेरी खुशी, मेरी जिम्मेदारी, मेरी आदत, मेरे जीवन जीने का तरीका ही बन गए।’
वह उत्साहित होकर कहती हैं, ‘यह सिर्फ खाना पकाने और लोगों को परोसने तक सीमित काम नहीं है, यह अपनी जीवनशैली को बचाए रखने और फुटकल, चकोड़ साग, बांस चिकन जैसे व्यंजनों के जरिए दुनिया को अपननी संस्कृति की कहानियां सुनाने एवं इसे विस्तारित करने की जिम्मेदारी भी है।’
डेंटल सर्जन के रूप में प्रैक्टिस करने के साथ-साथ वह झारखंड इंडिजिनस एंड ट्राइबल पीपल फॉर एक्शन (जेआईटीपीए) की महासचिव और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर अन्य भूमिकाएं भी बखूबी निभा रही हैं। साथ ही महिला सशक्तिकरण के लिए कार्यशालाएं भी आयोजित करती हैं। वर्ष 2018 में स्थापित उनके एनजीओ परोक्षा फाउंडेशन ने जेआईटीपीए के साथ मिलकर दूरदराज के इलाकों में स्थित गरीब आदिवासियों के लिए आजीविका के साधन बढ़ाने के लिए भी काम करना शुरू किया है।
उनके काम को दुनियाभर से सराहना और पहचान मिल रही है। उन्होंने 2019 में जकार्ता में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय युवा मंच कार्यक्रम में देश का प्रतिनिधित्व किया। पिछले साल एसआरएम विश्वविद्यालय ने उन्हें वुमन अचीवर अवार्ड से सम्मानित किया। इस वर्ष एक्सएलआरआई, जमशेदपुर ने उन्हें इमर्जिंग सोशल एंटरप्रेन्योर ऑफ द ईयर अवार्ड से नवाजा। वह आईआईएम, कलकत्ता के इनोवेशन पार्क में फैकल्टी मेंटर और बिहार में एनआरईपी इनक्यूबेटर भी हैं।
अपने काम के बारे में वह बताती हैं, ‘झारखंड में आदिवासियों को उनकी भलाई के लिए ही सही, लेकिन उनकी अपनी भूमि का साझा उपयोग करने के लिए राजी करना कोई आसान काम नहीं है। हम किसी तरह 11 किसानों को उनकी 4.5 एकड़ भूमि पर खेती करने के लिए मनाने में कामयाब हो गए। अब हम लगभग 50 लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार देकर सशक्त बना रहे हैं। विशेष बात यह कि इनमें से 70 प्रतिशत महिलाएं हैं।’
रांची के जेवीएम श्यामली में अपने शुरुआती स्कूली दिनों में मनीषा एक बेहद शर्मीली और अंतर्मुखी बच्ची थीं, लेकिन इसके उलट अब वह दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास से भरी मुखर विचारों वाली महिला हैं।
मनीषा कहती हैं, ‘मैं हमेशा औसत दर्जे की छात्रा रही। मेरे ज्यादा दोस्त भी नहीं थे और अधिकतर घर पर ही रहना पसंद करती थी। अच्छी बात यह थी कि मैं हमेशा अपना ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करती थी और अपने आसपास की दुनिया के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहती। मेरे माता-पिता ने मुझे बहुत अधिक प्रेरित किया। दोनों बहुत कड़ी मेहनत करते थे। उनकी इसी मेहनत और समर्पण ने मुझे दिल से पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया।’
उरांव जनजाति से ताल्लुक रखने वाली मनीषा अंत में उत्साहित होकर बताती हैं, ‘अन्य आदिवासी छात्रों की तरह शुरुआत में सरकारी नौकरी हासिल करना उनका भी एकमात्र उद्देश्य था। मेरे माता-पिता भी मुझसे ऐसी ही उम्मीद करते थे। उस समय मैं कारोबार अथवा एंटरप्रन्योरशिप के बारे में कुछ भी नहीं जानती-समझती थी। इसलिए मेरा बचपन बहुत ही सादगीपूर्ण ढंग से गुजरा। हालांकि, बीडीएस की पढ़ाई के दौरान चीजें बिल्कुल बदल गईं और उसके बाद मैं जो कुछ हूं, आपके सामने हूं।’