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Home » द इंडियन ट्राइबल / हिंदी » विविध » कहां खो गई बस्तर की प्रसिद्ध तूमा शिल्प

कहां खो गई बस्तर की प्रसिद्ध तूमा शिल्प

सूखी लौकी के छिलकों से बने सुंदर लैंप और पानी रखने के मजबूत बर्तन कभी छत्तीसगढ़ की शान हुआ करते थे। सदियों पुरानी यह तूमा शिल्प अब धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। द इंडियन ट्राइबल की खास रिपोर्ट

March 16, 2024
Tuma Craft | The Indian Tribal

बस्तर में एक आदिवासी व्यक्ति तूमा से पानी डालता हुआ : पानी की बोतल

बस्तर

कभी छत्तीसगढ़ विशेषकर आदिवासी इलाकों की शान रहे लौकी के बर्तन अब बहुत कम घरों में दिखाई देते हैं। अधिकांश घरों में यहां तक की बहुत पिछड़े आदिवासी परिवारों में भी प्लास्टिक की बोतलों ने कब्जा कर लिया है। आदिवासी गांवों में प्लास्टिक से बनी पानी की बोतलों की आमद से अब कोई भी पानी  के लिए तुमा का इस्तेमाल नहीं करता।

बस्तर जिले में प्रसिद्ध चित्रकोट झरने के पास अपनी दुकान चला रहे तूमा बनाने के कारीगर जगतराम देवांगन अब बहुत निराश दिखते हैं। वर्षों से इस शिल्प कला पर काम करने वाले देवांगन तूमा (बस्तर की प्रसिद्ध तूमा शिल्प) के पीछे छूटने को आधुनिकता की निशानी मानते हैं। उनका मानना है कि आधुनिकता धीरे-धीरे पुरानी जीवनशैली की प्रथाओं को लील रही है। 

बड़े निराशाजनक लहजे में देवांगन कहते हैं, ‘प्लास्टिक बोतल में आने वाले पानी का इतना प्रचार किया गया कि अब ग्रामीण इलाकों में भी लोग धड़ल्ले से इसे ही खरीद रहे हैं। नई पीढ़ी शौक और दिखावे की भी शिकार है। साथ ही उसके मन में यह डर बैठा दिया गया है कि तूमा बर्तन टूट जाएंगे और ये सेहत के लिए सुरक्षित नहीं हैं।’ 

Tuma Craft
कोंडागांव जिले में कलाकार लौकी के खोल पर काम करता हुआ। लौकी के खोल की सतह पर छेद किए जाते हैं और फिर अंदर बल्ब लगाए जाते हैं

शिल्पकार देवांगन ने The Indian Tribal को बताया, ‘तूमा पर प्लास्टिक को तरजीह देने का एक और कारण है। वह यह कि गांवों में मोटरसाइकिलों की भरमार हो गई है। इन पर प्लास्टिक की बोतलों को ले जाना आसान है, जबकि तूमा के टूटने का डर बना रहता है। ऐसी स्थिति में बहुत कम लोग ही अब तूमा का उपयोग कर रहे हैं।’ 

कारीगर सूखी लौकी से बेहद खूबसूरत लैंप बनाते हैं। इसे बनाने में समय लगता है, जिसके लिए बहुत अधिक धैर्य की जरूरत होती है। यह मेहनत, लगन और कारीगरी तूमा पर नजर भी आती है। देखते ही ग्राहक मोहित हो जाता है। रोशनी करने के साथ-साथ यह घर की सजावट के लिए भी अच्छी चीज है। लैंप के साथ-साथ कारीगर तूमा से पानी की बोतलें बनाते हैं,  जो पहले लगभग हर घर में इस्तेमाल होती थीं। देवांगन के लैंप की कीमत 500 रुपये से 3500 रुपये तक होती है और बोतलों की कीमत लगभग 400 रुपये से 500 रुपये के बीच पड़ती है।

वह कहते हैं,  ‘पुराने जमाने में जब प्लास्टिक की बोतलें नहीं होती थीं तब लोग तूमा को ही पानी भरने के लिए उपयोग में लाते थे। लोग बाजरे का दलिया ले जाने के लिए भी तूमा के बर्तन का ही इस्तेमाल करते थे।’ 

देवांगन ने कहा कि तूमा के बर्तन बाहर से सख्त और अंदर से नरम होते हैं। इसकी खासियत यह होती है कि कड़ी से कड़ी गर्मी में भी इसमें पानी ठंडा रहता है। इसे इस प्रकार बनाया जाता है कि किसी भी तरह पानी लीक न हो

Tuma Craft
बलिराम नाग बस्तर के एक गांव में तुमा जल पात्र बनाते हैं |
Tuma Craft |  बस्तर की तूमा शिल्प
जगदलपुर में बस्तर आर्ट कैफे की छत से लटका हुआ एक तुमा लैंप

यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट फॉर वॉटर, एनवायरनमेंट एंड हेल्थ द्वारा 2023 में प्रकाशित ‘ग्लोबल बोतलबंद पानी उद्योग: प्रभावों और रुझानों की समीक्षा’ पर रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान वैश्विक बोतलबंद पानी की बिक्री लगभग 270 अरब अमेरिकी डॉलर और 350 अरब लीटर होने का अनुमान है।  

ऐसा कहा जाता है कि ग्लोबल साउथ में बोतलबंद पानी का उपयोग मुख्य रूप से विश्वसनीय सार्वजनिक जल आपूर्ति व्यवस्था की कमी के कारण किया जाता है।

आखिर लौकी से तूमा बनता कैसे है? इसके लिए सितंबर में जब लौकी का फल तैयार हो जाता है तो उसे इस्तेमाल के लिए तोड़ लिया जाता है,  लेकिन इनमें से कुछ को बेल पर ही फरवरी तक खूब पकने के लिए छोड़ दिया जाता है। जब लौकी का फल बेल पर ही पक जाता है तो इसकी बाहरी परत खूब मोटी और सख्त हो जाती है। अंदर का गूदा सूख जाता है, जिसे बीज समेत निकाल लिया जाता है। अब इस खोखले तूमा से पानी की बोतल, लैंप और सजावट के अन्य सामान बनाए जाते हैं।

लैंप बनाने के लिए उपयोग की जाने वाली लौकी हालांकि उतनी सख्त नहीं होती, जितनी पानी का बर्तन बनाने वाली होती है। कुछ लोग अपने घरों की छतों पर भी सूखी लौकी रख छोड़ते हैं, ताकि जरूरत पडऩे पर बाद में वे पानी भरने का बर्तन बना सकें।

Tuma Craft
बस्तर के ग्रामीण हाट में ताज़ी लौकी की बिक्री

बस्तर में धुरवा आदिवासी समुदाय से आने वाले बलिराम नाग कहते हैं, ‘अधिकांश लोगों ने लौकी की देसी किस्में उगाना ही छोड़ दिया है, जिनका इस्तेमाल ज्यादातर पानी के बर्तन बनाने के लिए किया जाता था। ये अधिकांश जंगल में उगते थे। अब तो लोग स्वदेशी के बजाय संकर लौकी उगाते हैं। न बर्तन बनाने के लिए लौकी मिलती है और न ही लोग अब इनका इस्तेमाल पानी भरने के लिए करते हैं,  इसलिए यह शिल्प पीछे छूटती जा रही है। अब इनका प्रयोग विशेष रूप से पूजा-पाठ के दौरान ही किया जाता है।’नाग ने कहा कि पहले लोग लंबी यात्रा के दौरान तूमा के बर्तन में ही पानी लेकर चलते थे, लेकिन अब लोगों के हाथ में अधिक पैसा है, इसलिए वे अक्सर अपनी यात्रा के दौरान दुकानों से भोजन के साथ-साथ पानी की बोतलें भी खरीद लेते हैं।

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The Indian Tribal is India’s first bilingual (English & Hindi) digital journalistic venture dedicated exclusively to the Scheduled Tribes. The ambitious, game-changer initiative is brought to you by Madtri Ventures Pvt Ltd (www.madtri.com). From the North East to Gujarat, from Kerala to Jammu and Kashmir — our seasoned journalists bring to the fore life stories from the backyards of the tribal, indigenous communities comprising 10.45 crore members and constituting 8.6 percent of India’s population as per Census 2011. Unsung Adivasi achievers, their lip-smacking cuisines, ancient medicinal systems, centuries-old unique games and sports, ageless arts and crafts, timeless music and traditional musical instruments, we cover the Scheduled Tribes community like never-before, of course, without losing sight of the ailments, shortcomings and negatives like domestic abuse, alcoholism and malnourishment among others plaguing them. Know the unknown, lesser-known tribal life as we bring reader-engaging stories of Adivasis of India.

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