भुवनेश्वर
एकीकृत जनजातीय विकास एजेंसी (आईटीडीए) ने सुंदरगढ़ जिले में मुंडा, ओरांव और मुंडारी जैसी जनजातियों से ताल्लुक रखने वाले किसानों की जिंदगी बदल दी है। वे इससे खासे उत्साहित हैं कि इस सरकारी एजेंसी की मदद से उनकी कम उपज देने वाली भूमि में अब टमाटर की फसल लहलहा रही है। टमाटर के रूप में अपनी इस सफलता से प्रेरित होकर अब वे हर साल तीन महीनों- सितंबर, अक्टूबर और नवंबर में अलग-अलग तरह की सब्जियां उगा कर मोटा मुनाफा हासिल कर रहे हैं।
कभी कम वर्षा के कारण खाली पड़े रहने वाले खेत अब इतने उपजाऊ हो चुके हैं कि हर साल तीन महीनों में ही बहुआयामी फसलों से वे औसतन 40,000 से 45,000 रुपये तक लाभ कमा रहे हैं।
पहले आदिवासी अपनी पहाड़ी जमीन पर बेतरतीब ढंग से किसी तरह टमाटर उगाते थे। ढलान वाली भूमि होने के कारण टमाटर और उनके पौधों की शाखाएं थोड़ी सी बारिश या हवा में नीचे धरती पर गिर जातीं अथवा टूट जाती थीं। टूटे हुए टमाटर वहीं पौधों की जड़ों में सड़ जाते थे, जिसका सीधा असर फसल पर पड़ता था और उत्पादन 30 फीसदी तक घट जाता था। हालांकि, तीन साल पहले आईटीडीए के हस्तक्षेप से न केवल उत्पादन में बढ़ोतरी हुई, बल्कि बारिश या तेज हवा से होने वाला नुकसान भी लगभग शून्य हो गया है।
आईटीडीए आजीविका विशेषज्ञ प्रसन्ना दास ने The Indian Tribal से बातचीत में बताया कि हमने यहां के किसानों को तार के जाल उपलब्ध कराए । टमाटर के खेतों में ये जाल लकड़ी की डंडियों के सहारे इस तरह बांधे गए कि केवल पौधों की जड़ें ही जमीन में गहराई तक चली गईं, जबकि उनकी शाखाएं और फल जाल के साथ ऊपर फैल गए। इससे वे धरातल के संपर्क में नहीं आए और बारिश या तेज हवा की स्थिति में टूटने और फिर पौधों की जड़ों में सडऩे से बच गए। इस प्रक्रिया को अपनाने से किसानों की फसलों में हर बार होने वाला नुकसान लगभग 90 फीसदी तक कम हो गया।
आईटीडीए ने कुंडेडीहा में 100 किसानों के साथ प्रयोग के तौर पर यह परियोजना शुरू की थी। प्रत्येक किसान ने अपनी खेती की जमीन में से 50 डेसीमल पर इस परियोजना के तहत काम शुरू किया, जिसके अप्रत्याशित परिणाम सामने आए।
गांव के चुक्कू लाकड़ा खुशी से चिल्लाते हुए कहते हैं कि वह उत्पादन की मात्रा तो नहीं बता सकते, लेकिन इस परियोजना से हुए लाभ से काफी संतुष्ट हैं। उनकी पत्नी भी करेंसी नोट लहराकर खुशी का इजहार करते हुए अपने पति की बढ़ी कमाई से काफी उत्साहित दिखीं।
जब यह प्रयोग टमाटर पर सफल हुआ तो किसानों ने इसे दूसरी फसलो पर भी आजमाना शुरू कर दिया और इस तरह जल्द ही फूलगोभी, पत्तागोभी, परवल जैसी तमाम सब्जियों की खेती की जाने लगी। सुरक्षित फसल उत्पादन से किसानों को खासा लाभ हो रहा है।
आदिवासी किसानों की इस सफलता ने आसपास के बलिया, किंद्रो और लछादा जैसे गांवों के अन्य आदिवासी और गैर-आदिवासी किसानों को भी इसी विधि से फसल उत्पादन के लिए प्रेरित किया।
कुंडेदिहा में आईटीडीए परियोजना को अपनाने वाले दस प्रगतिशील किसानों में शामिल दौत एक्का दावा करते हैं कि वह अपनी 2.5 एकड़ जमीन पर कतारों में टमाटर, भिंडी, परवल और कद्दू उगाते हैं। इससे उन्हें हर साल तीन महीनों के दौरान 2 लाख से रु. 2.5 लाख की कमाई हो जाती है।
प्रसन्ना कहते हैं कि उनके प्रयासों से प्रभावित होकर ही ओडिशा कृषि विभाग ने आदिवासी किसानों को बाजरा, जटांगी (एक प्रकार का तेल बीज) और तिल के बीज उपहार में दिए हैं, ताकि वे इनका भी उत्पादन शुरू करें। इसी तरह, बागवानी विभाग ने कुंडेदिहा में मनरेगा के तहत भी एक अन्य परियोजना शुरू की है।