जम्मू
अन्य राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर के आदिवासियों का भी प्रकृति से बहुत गहरा रिश्ता है। इन जनजातियों में ज्यादातर खानाबदोश चरवाहे हैं, जो जानवर पालते हैं। वे पूरा जीवन अपने जानवरों के साथ सडक़ों पर गुजार देते हैं। बहुत थोड़े से लोगों का समूह हमेशा एक जगह से दूसरी जगह पलायन करता रहता है। अपनी अकेली जिंदगी में खुशी के रंग भरने के लिए ये चरवाहे संगीत वाद्ययंत्र साथ रखते हैं और भगवान की स्तुति गाते हैं।
खानाबदोश आदिवासी लोग गाने-बजाने में इतने पारंगत होते हैं कि पेड़ की पत्तियों से भी सुर निकाल देते हैं। वैसे ये पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हैं। चरवाहे लडक़े पेड़ की पत्तियों को लपेटकर पाइप की तरह बना लेते हैं और जीभ मोडक़र सीटी जैसी अलग-अलग तरह की आवाजें (सुर) निकालते हैं। इन आवाजों, सुरों-संकेतों के जरिए वे अपनी भेड़ों और अन्य मवेशियों को बुलाते, कुछ बताते अथवा उन्हें नियंत्रित करते हैं।
इनका लोकप्रिय संगीत यंत्र अलगोज़ा या नागल (गोजरी में) है। यह जंगली खोखले बांस से बनी छह या सात छेद वाली एक बांसुरी होती है। सामान्य अल्गोज़ा सात से 11 इंच लंबा होता है। गुज्जर जनजाति के लोग इसे दैवीय यंत्र मानते हैं।
प्रसिद्ध शोधकर्ता और लेखक डॉ. जावेद राही कहते हैं कि यह बांसुरी मुख्य रूप से देहाती खानाबदोशों और चरवाहों का प्रमुख संगीत यंत्र है। गुज्जर इस पर लोकप्रिय लोक धुनें बजाते हैं। दरअसल, जम्मू, श्रीनगर या पुंछ में ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित होने वाले गोजरी कार्यक्रमों की प्रमुख धुनें जोड़ी धुनों पर आधारित होती हैं।
अलगोज़ा का दूसरा रूप जोड़ी या दो नाल होता है। यह कुछ क्षेत्रों में बजाया जाता है। जोड़ी का अर्थ है दो बांसुरी, जिन्हें एक साथ बजाया जाता है। पहाड़ों में आसानी से उपलब्ध इस वाद्य यंत्र से हर तरफ तीन अंगुलियों से सुर लगाया जाता है। जोड़ी की ध्वनि बांसुरी की ध्वनि से मिलती-जुलती होती है। यह वाद्ययंत्र गुज्जर और बकरवाल समुदायों के बीच आज भी बहुत लोकप्रिय है।
इन खानाबदोश जनजातियों का एक अन्य प्रसिद्ध संगीत वाद्ययंत्र बिसिली है। इस त्रिकोणीय यंत्र के बीच में और दोनों तरफ एक-एक छेद होता है। इसके अलावा मुंह से बजाने के लिए इसमें एक नली होती है, जो विशिष्ट सीटी जैसी ध्वनि निकालती है। बिसिली आग से पकी हुई मिट्टी से तैयार वाद्ययंत्र होता है। यह वाद्ययंत्र मवेशियों या भेड़ों को चराते चरवाहों पर अक्सर मिल जाता है, जिस पर वे लोकगीतों की धुनें निकालते हैं।
जम्मू-कश्मीर के गुज्जर/बकरवाल समुदाय से ताल्लुक रखने वाले डॉ. राही बताते हैं कि चरवाहे अपने जानवरों को खतरे के बारे में सचेत करने के लिए ऊंचे स्वर में आवाज लगाते हैं। ऐसा देखा गया है कि दूर-दूर तक फैले चरागाहो में छितरे जानवर अपने चरवाहे की विशेष धुन सुनकर एकदम एक जगह एकत्र हो जाते हैं।