एक ऐसा समाज जहां टीकाकरण की बात करो तो लोग मुंह फेर लें। उन्हें डर लगता कि यदि किसी महिला को टीका लगाया गया तो वह बांझ हो जाएगी या उसके गर्भ में पल रहा बच्चा मर जाएगा। अथवा, मां-बच्चे दोनों को जिंदगी से हाथ धोना पड़ेगा। ओडिशा के कालाहांडी के जिला मुख्यालय भवानीपटना से लगभग 85 किलोमीटर दूर उरलादानी पंचायत के तहत एक गांव मार्डिंग में इस तरह की धारणाएं गहरे जड़ जमाए हुए थीं। समाज में फैली ये भ्रांतियां आम जनजीवन पर भारी पड़ रही थीं।
जब भी कोंध जनजाति बहुल इस क्षेत्र में कोई नई सुविधा या सेवा अथवा अजनबी चीज लायी जाती, लोगों में इससे कुछ गलत होने का भय व्याप्त हो जाता। इसी प्रकार जब सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों ने इस इलाके में बच्चों-महिलाओं के लिए टीकाकरण की आवश्यकता पर जोर दिया तो आदिवासियों में भय के कारण खलबली मच गई। कुछ महिलाओं ने जहां विरोध करते हुए हंगामा खड़ा कर दिया तो कुछ जंगलों में जाकर छुप गईं।
साल 2019 में अप्रत्याशित रूप से एक 26 साल के युवा किसान तारेंगा मांझी सामने आए। पोंगा कोंध जनजाति से ताल्लुक रखने वाले इस छोटे किसान ने यूनिसेफ के लिए संपूर्ण बार्टा प्रोजेक्ट (एसबीपी) के तहत स्वयंसेवक के रूप में काम करना शुरू किया और लोगों को टीकाकरण के फायदे बताने जैसा कठिन काम अपने हाथ में लिया।
काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, लेकिन तारेंगा ने हार नहीं मानी। यूनिसेफ के अधिकारियों, एएनएम, आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की मदद से अपने मिशन में लगे रहे।
तारेंगा मांझी ने The Indian Tribal को बताया कि शुरुआत में वह भी अपने समाज के लोगों की तरह डरे हुए थे और उनके मन में अनेक भ्रांतियां थीं, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने सवाल करने शुरू किए और जानकारी हासिल की। चीजें समझ में आने लगीं तो एसबीपी से जुड़ गए। इसके बाद भवानीपटना में उन्हें प्रशिक्षण दिया गया। यही नहीं, चीजों को बेहतर तरीके से समझने और लोगों तक उन बातों को पहुंचाने का प्रशिक्षण हासिल करने के लिए उन्हें भुवनेश्वर भी भेजा गया। वहां न केवल उनके ज्ञान में वृद्धि हुई, बल्कि टीकाकरण को बढ़ावा देने के लिए आगे बढक़र काम करने की प्रेरणा भी मिली।
एसबीपी क्लस्टर समन्वयक जगन्यासेनी भोई के अनुसार, इससे पहले बहुत समझाने पर 17 गर्भवती महिलाओं ने टीका लगवाने की हिम्मत जुटाई, लेकिन जैसे ही टीकाकरण का समय आया, तो उनमें से तीन ने मना कर दिया और लाख कोशिशों के बावजूद वे टीका लगवाने को राजी नहीं हुईं।
इसी तरह कड़ी मशक्कत से शुरू हुआ टीकाकरण का सफर आगे बढ़ा। जहां कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती थी, वहां धीरे-धीरे माहौल पूरी तरह उनके पक्ष में होने लगा। जो लोग कुछ दिन पहले टीकाकरण से इनकार करते थे, वे अब बढ़-चढ़ कर साथ देने लगे और इसके लिए लोगों को समझाने लगे। तारेंगा की बुद्धि और ज्ञान एवं समझाने का उनका तरीका ही ऐसा था कि लोग आंख बंद कर उन पर भरोसा करने लगे। यही वजह रही कि मातृ और शिशु मृत्यु दर के खिलाफ एक बड़े हथियार के रूप में काम करने वाले टीकाकरण का अभियान यहां अब काफी मजबूत हो रहा है।
जगन्यासेनी The Indian Tribal से बातचीत में बड़े गर्व से कहते हैं कि तारेंगा के नेतृत्व में अभियान आगे बढ़ गया है। अब ऐसी कोई घटना यहां नहीं होती, जो लोग टीकाकरण के खिलाफ बोलें। तारेंगा के लगातार आदिवासियों को प्रेरित करने का ही प्रतिफल है कि अब महीने के हर दूसरे बुधवार को मार्डिंग टीकाकरण केंद्र पर 10 से 15 बच्चे और गर्भवती महिलाएं बेझिझक, बेखौफ होकर टीका लगवाने आती हैं।
इस क्षेत्र में मातृ और शिशु मृत्यु दर के वर्तमान परिदृश्य के बारे में पूछे जाने पर, तारेंगा कोई सटीक तथ्य और आंकड़े तो नहीं दे पाते, लेकिन उनके अभियान का असर हर तरफ दिख रहा है। वह दृढ़ विश्वास के साथ कहते हैं कि स्थिति पहले के मुकाबले अब बहुत बेहतर है, क्योंकि कभी टीकाकरण को अभिशाप समझने वाले जनजातीय लोग अब स्वास्थ्य के लिए इसे रामबाण मानने लगे हैं।
तारेंगा के टीकाकरण अभियान से जुडऩे से पहले मार्डिंग का स्वास्थ्य परिदृश्य दुख और पीड़ा की अलग कहानी कहता था। गर्भवती महिलाएं चिकित्सा मदद के बिना प्रसव पीड़ा सहन करती थीं। यहां तक कि बच्चे भी चुपचाप लहर कासा (काली खांसी) और कंठ अलती (बच्चों के मुंह और गले में खराश) जैसी बीमारी का सामना करते थे और इलाज के अभाव में इसका खामियाजा भुगतते थे।
तारेंगा की टीम के एक अन्य स्वयंसेवक जोगीराम मांझी The Indian Tribal से कहते हैं कि पहले बीमार होने की स्थिति में इलाज के लिए गर्भवती माताओं और बच्चों को या तो चारपाई पर या बांस की पट्टियों से बनी बड़ी टोकरी में उरलादानी के आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास ले जाया जाता था। यदि उनकी हालत और अधिक बिगड़ती, तो उन्हें रामपुर ब्लॉक मुख्यालय के स्वास्थ्य केंद्र में रेफर कर दिया जाता था।
इसी प्रकार यूनिसेफ के अधिकारी संतोष बेहरा कहते हैं कि क्षेत्र की स्थिति में अब आमूल-चूल परिवर्तन आया है। सलाम है तारेंगा मांझी को, जिन्होंने हालात बदलने के लिए दिन-रात एक कर दिया।
मार्डिंग में तीन बच्चों की मां सेबंती दिगल बड़े गर्व से कहती हैं कि जिस टीकाकरण से पहले डर लगता था, अब वह हमारे जीवन का मूलमंत्र बन गया है।
यह भी जान लें
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-5 के अनुसार ओडिशा पूर्ण टीकाकरण का 90.5 प्रतिशत लक्ष्य हासिल कर देशभर के राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है।
- पांच साल में ओडिशा में 12-23 महीने के आयु-समूह में पूरी तरह से प्रतिरक्षित (टीकाकरण) बच्चों की संख्या 62 प्रतिशत से बढक़र 75 प्रतिशत हो गई है।
- ओडिशा के बाद हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और गोवा क्रमश: 89.3, 89.2, 87.8, 84.1 और 81.9 प्रतिशत टीकाकरण के साथ अन्य राज्य हैं।
- ओडिशा के ग्रामीण क्षेत्रों में 12 से 23 महीने के बीच के 99.1 प्रतिशत बच्चों का टीकाकरण किया जा चुका है। शहरी क्षेत्रों में इसी आयु वर्ग के 99.8 प्रतिशत बच्चों का टीकाकरण हो गया है।- वैक्सीन कॉन्फिडेंस प्रोजेक्ट (लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन) द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित ग्लोबल फ्लैगशिप रिपोर्ट ‘विश्व में बच्चों की स्थिति 2023। प्रत्येक बच्चे के लिए, टीकाकरण’ के अनुसार, ओडिशा में 95.5 प्रतिशत बच्चों का टीकाकरण हो चुका है, जबकि राष्ट्रीय औसत 76.4 प्रतिशत ही है। यह रिपोर्ट यूनिसेफ द्वारा जारी की गई है।