टोक्यो ओलंपिक में भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद क्रिकेट से इतर दूसरे खेल पुन: सुर्खियों में आ गए थे। सबसे बड़े अंतराष्ट्रीय खेल मेले में भारतीय महिला और पुरुष हॉकी टीमों की शानदार सफलता में झारखंड के अपार योगदान को भला कैसे भुलाया जा सकता है।
लेकिन, कॉरपोरेट खेल संस्कृति की चकाचौंध से अलग हटकर झारखंड में कई प्राचीन जनजातीय खेल आज भी बड़े उत्साह के साथ खेले जाते हैं। हां, यह बात अलग है कि इन खेलों के माहिर खिलाड़ी बहुत कम लोग बचे हैं।
इनमें से कुछ खेलों पर निजी कंपनियों की नजर जरूर पड़ी है और वे उन्हें विलुप्त होने से बचाने के लिए आगे आई हैं। इनकी मदद से ये खेल पुन: लोकप्रियता हासिल कर सकते हैं। टाटा स्टील की सहायक कंपनी टाटा कल्चरल सोसाइटी ऐसे ही रोचक खेलों सेक्कोर और कटि को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही है।
सेक्कोर
यह खेल कुछ-कुछ लट्टू की तरह खेला जाता है। कुसुम की लकड़ी से बने अंडाकार टोपी वाले लट्टू पर चारों ओर एक रस्सी को लपेटा जाता है। इस तेज घूमते लट्टू को विरोधी टीम को गिराना होता है। यही इस खेल की रोचकता को बढ़ाता है। यह खेल हो जनजाति के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय है।
ऐसा माना जाता है कि पहली बार सेक्कोर खेल मानव और शैतान के बीच खेला गया था। इस खेल में पहली जीत इंसानों की हुई थी।
अब सेक्कोर गर्मियों के दौरान खेला जाता है। आदिवासियों का मानना है कि इस खेल के आयोजन से बढिय़ा मानसून आता है और यह सूखे को रोकता है।
कटि
कटि खेल कोल्हान क्षेत्र की परंपरा का अभिन्न हिस्सा है। आदिवासी समुदाय की संथाल जनजाति में इस खेल को अमूमन फसल उठान के बाद खेला जाता है।
यह खेल टीम बनाकर खेला जाता है और प्रत्येक टीम में पांच, सात या 10 सदस्य होते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी के पास इमली की लकड़ी से बनी एक अर्ध-वृत्ताकार डिस्क (कटि) से होती है। इसे छह फीट की बांस की लाठी से मारना होता है। इस लाठी को ताड़ी कहते हैं। कटि को आयताकार चिन्हित जगह के बीचों-बीच पंक्तिबद्ध रखा जाता है और पैरों से पूरा जोर लगाकर ताड़ी को इस कटि में मारा जाता है।
यह खेल दरअसल, ताकत के साथ-साथ हाथ और आंखों के बीच तालमेल बनाने की कला है। जिसमें जितनी ताकत और आंख-हाथ का तालमेल बनाने का हुनर, वही इस खेल का सिकंदर।
झारखंड के आंतरिक इलाकों में आदिवासी लोग और भी बहुत से देसी खेल खेलते हैं, जिनमें एक बिट्टी है, जो गिल्ली-डंडा से मिलता-जुलता होता है, लेकिन क्रिकेट से भी ज्यादा लोकप्रिय है। इनके अलावा घोघो-घोघो रानी, आइंख मुंडवाल खैतकुल, झेलुवा, छलकौवा, पानी में छूछुई आदि भी ऐसे खेल हैं, जो आज भी आदिवासियों के मनोरंजन का सबसे अच्छा साधन हैं।
हदा पोटा, थेंगा गबावेल और घापी कुछ ऐसे खेल हैं, जो कभी बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ करते थे, लेकिन अब बामुश्किल ही खेले जाते हैं।
इनके बारे में लोगों को जानकारी भी कम होती जा रही है। आज जनजातियों के रीति-रिवाजों और पारंपराओं का हिस्सा रहे इन बहुत ही मजेदार खेलों को संरक्षित करने की आवश्यकता है।