अपने विकास के क्रम में प्रत्येक संस्कृति मनोरंजन के विभिन्न रूपों को आत्मसात करती चलती है। इनमें स्वदेशी खेल भी शामिल हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों का मनोरंजन करते हैं।
देश में अनोखी विविधता वाले जनजातीय समुदायों में कई मैदानी खेल पीढिय़ों से खेले जाते रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से अब उनका नामो-निशान देखने को नहीं मिलता। ऐसा ही एक पारंपरिक आदिवासी खेल ‘भुख्यो सिंह’ यानी भूखा शेर हुआ करता था। यह खेल कभी दक्षिणी गुजरात की जनजातियों के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय था, लेकिन अब शायद ही किसी को यह खेल खेलते हुए देखा हो।
‘भुख्यो सिंह’ यानी भूखा शेर खेल कभी दक्षिणी गुजरात की जनजातियों के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय था, लेकिन अब शायद ही किसी को यह खेल खेलते हुए देखा हो।
इस पारंपरिक खेल को लगभग 12 से 40 लोगों का समूह खुले मैदान में खेल सकता है। इसमें प्रत्येक खिलाड़ी के लिए मैदान में तीन से चार फीट की दूरी पर दो फीट व्यास के गोल घेरे बनाए जाते हैं।
गोल घेरे के बिना वाला खिलाड़ी भूखा शेर कहलाता है। अन्य खिलाड़ी अपने घेरे के भीतर खड़े होते हैं, जो उनके लिए सुरक्षित क्षेत्र माना जाता है। खेल की शुरुआत भूखा शेर बने खिलाड़ी के अपने हाथों और घुटनों को मोडक़र यानी झुककर मैदान में दहाड़ते हुए घूमने के साथ होती है।
जब वह खिलाड़ी एक जंगली जानवर का नाम लेता है, तो यह अन्य सभी खिलाडिय़ों के लिए इस बात का संकेत होता है कि वे अपने घेरों से बाहर निकलें और इस भूखे शेर के पीछे-पीछे 8 से 10 फीट की सुरक्षित दूरी पर चलना शुरू करें।
इस प्रकार जानवर बने सभी खिलाड़ी जब अपने घेरों से बाहर आ जाते हैं तो यह भूखा शेर अचानक जोर से खाऊं-खाऊं चिल्लाता हुआ खिलाडिय़ों को पकडऩे के लिए दौडऩे लगता है। यानी वह कुछ खाना चाहता है और जानवर बने सभी खिलाडिय़ों को इस भूखे शेर का निवाला बनने से बचने के लिए जल्द से जल्द अपने सुरक्षित घेरों में पहुंचना होता है।
इस रस्साकशी के दौरान यदि यह भूखा शेर किसी खिलाड़ी (जानवर) को पकड़ लेता है, तो वह खिलाड़ी अगला शेर बन जाता है और इस प्रकार पूरे हो-हल्ले के साथ खेल आगे बढ़ता रहता है।
दुख इस बात का है कि रोमांचित कर देने वाला यह पारंपरिक खेल अब विलुप्त होने के कगार पर है। वह इसके लिए मुख्य रूप से टेलीविजन और मोबाइल फोन को जिम्मेदार मानते हैं, जिन्होंने मनोरंजन के अन्य साधन उपलब्ध करा दिए हैं।
अहमदाबाद स्थित गांधीवादी संस्थान गुजरात विद्यापीठ में शारीरिक शिक्षा के सहायक प्रोफेसर डॉ. निमेश चौधरी ने इस प्रकार के पारंपरिक खेलों के विलुप्त होने पर दुख जताते हैं और इसे आदिवासी संस्कृति का क्षरण मानते हैं। डॉ. चौधरी बड़े अफसोस के साथ कहते हैं कि पिछले डेढ़ दशक में आदिवासी समुदाय के लोगों को शायद ही यह भूखे शेर वाला खेल खेलते देखा हो।
दुख इस बात का है कि रोमांचित कर देने वाला यह पारंपरिक खेल अब विलुप्त होने के कगार पर है। वह इसके लिए मुख्य रूप से टेलीविजन और मोबाइल फोन को जिम्मेदार मानते हैं, जिन्होंने मनोरंजन के अन्य साधन उपलब्ध करा दिए हैं। डॉ. चौधरी को यह भी लगता है कि आदिवासी समुदायों के लोग जितने शिक्षित होते जा रहे हैं, वे अपने पारंपरिक खेलों से दूर भाग रहे हैं। उनकी रूचि प्राचीन खेलों में नहीं दिखती।