नई दिल्ली/भोपाल
मध्य प्रदेश में उमरिया जिले के लोरहा गांव की रहने वाली आदिवासी महिला जोधैयाबाई बैगा उर्फ अम्मा के लिए जिंदगी इतनी आसान नहीं रही है। एक वर्ष की आयु में उनके सिर से मां-बाप का साया उठ गया था। वहीं से मुश्किलों का दौर शुरू हुआ। भाइयों ने उन्हें पाला-पोसा। झंझावातों में घिरी रोजमर्रा की जिंदगी में मन की सी करने का कभी मौका ही नहीं मिला और जब जीवन के आखिरी पड़ाव 70 साल जैसी उम्र में मिला तो उन्होंने कला क्षेत्र में ऐसा काम किया कि एक ही दशक में दुनियाभर में मशहूर हो गईं।
कहते हैं कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और प्रतिभा सुविधाओं की मोहताज नहीं होती। अब 84 वर्ष की हो चुकीं जोधैयाबाई ने 70 साल की उम्र में पेंटिंग शुरू की। उन्होंने जिले में जन-गण तस्वीरखाना नाम से स्टूडियो चलाने वाले प्रसिद्ध कलाकार और शिक्षक आशीष स्वामी से पेंटिंग की बारीकियां सीखीं। दुर्भाग्वश कोविड-19 के चलते स्वामी का निधन हो गया और वह अपनी इस बुजुर्ग शिष्या को देश का प्रतिष्ठित पुरस्कार लेते हुए नहीं देख पाए।
अम्मा ने आदिवासी संस्कृति को कैनवास पर उसी प्रकार उकेरना शुरू किया मानो एक मछली पानी में उतर रही हो। जैसे उन्हें एक नया जीवन मिल गया हो। कैनवस से शुरुआत कर वह कागज तक आईं और फिर मिट्टी, धातु और लकड़ी पर अपनी कला का शानदार प्रदर्शन किया। कई देशों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की कला प्रदर्शनियों में उनकी पेंटिंग प्रदर्शित हुईं और इससे देश-विदेश में उनकी प्रसिद्धि बढ़ती गई। बैगा कला की माहिर चित्रकार की कलात्मक शैली की तुलना अक्सर जंगढ़ सिंह श्याम से की जाती है।
अपने जीवन के संघर्षों के बारे में बात करते हुए जोधैयाबाई बैगा ने कहा कि जब वह छह महीने की थी तब उनकी मां की मृत्यू हो गई थी और जब वह एक वर्ष की थीं तो सिर से पिता का साया भी उठ गया। उनके तीन भाई थे, जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा और शादी तय की। लेकिन, 40 साल की उम्र हुई तो उनके पति की भी मौत हो गई। उस समय उनके दो बेटे थे और वह छह महीने की गर्भवती थीं।
उन्होंने कहा कि पति की मौत के बाद उन्हें कई तरह की समस्याओं ने घेर लिया। मजदूरी और अन्य छोटे-मोटे काम करके किसी तरह अपनी आजीविका चलाई। बाद में जब दोनों बेटे बड़े हो गए तो स्वतंत्र रूप से काम करने लगे तो बैगा ने कुछ राहत की सांस ली। वह बताती हैं कि जब गुरु जी आशीष स्वामी मुंबई से यहां आए, तो उन्होंने मेरे बेटे के जरिए मुझे अपने पास काम करने के लिए बुलवाया।
जब गुरुजी से मुलाकात हुई तो अम्मा ने उन्हें बताया कि वह न तो लिख सकती हैं और न ही पढ़ सकती हैं, इसलिए उनके साथ काम नहीं कर सकतीं। कुछ सोचने के बाद आशीष ने उन्हें लकड़ी की पतली छड़ी से फर्श पर चित्र बनाने को कहा। इसके बाद जोधैयाबाई ने फर्श पर छड़ी से सब्जियां बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद वह कागज देकर उन पर चित्र बनाने को कहते। और, इस प्रकार देखते-देखते वह मिट्टी-लकड़ी और कागज का सफर तय करते हुए धीरे-धीरे कैनवस पर आ गईं।
पद्मश्री पुरस्कार पाकर अम्मा बहुत खुश हैं। वह इस उपलब्धि के लिए अपने गुरुजी को धन्यवाद देती हैं। जोधैयाबाई कहती हैं कि उन्होंने ही तो मुझे यह यह स्वप्न दिखाया और आज वह पूरा हुआ है।
हालांकि, जोधैयाबाई बैगा उर्फ अम्मा का आज भी अपना घर नहीं है। वह कहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों ने उन्हें पीएम आवास योजना के तहत फ्लैट का आश्वासन दिया था, लेकिन वह आज तक नहीं मिला। इस संबंध में हालांकि अधिकारियों ने बताया कि उनके दोनों बेटों को पहले ही क्वार्टर आवंटित किए जा चुके हैं। इसके अलावा उन्हें गैस सिलेंडर आदि सहित अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ भी दिया गया है।