रांची
झारखंड का जनजातीय समुदाय रंग की बजाय संगीत और नृत्य से फागुन या कहें कि होली का उल्लास मनाता है। यहाँ के सदान (गैर-आदिवासी) भी इसमें काफी विश्वास रखते हैं। फागुन के महीने में ही आम्र मंजरियां, अमलतास, पलाश और कचनार के फूल खिलकर प्रकृति का सुंदर रंग बिखरते हैं। प्रकृतिपूजक आदिवासी समाज गीत-संगीत और नृत्य से प्रकृति की इस सुंदरता का उत्सव मनाता है।
झारखंड में विशेषकर नागपुरी भाषाभाषी फगुआ राग माघ बसंत पंचमी से गाना शुरू कर देते हैं, जो फगुआ चैत 15 तक, यानी रामनवमी तक गाया जाता है। फगुआ के जो 6 राग आज भी गाए जाते हैं, उनमें- ठेठ फगुआ, छंद दोहा फगुआ, पंच रंगिया फगुआ, पुछारी फगुआ, बारहमासा फगुआ, निर्गुण फगुआ, सरगुन फगुआ, शामिल हैं। फागुन पूर्णिमा के दिन अखरा में संवत काटा जाता है, जिसमें सेमल की डाली और लकड़ियों का अलाव जलाकर उसके चारों ओर स्त्री-पुरुष नाचते-गाते-बजाते भोर कर देते हैं। सुबह अलाव की राख को एक-दूसरे के गालों व माथे, पर लगाकर फगुआ का उमंग साझा किया जाता है। गावों में छोटे-छोटे नृत्य दल फगुआ राग और नृत्य पर थिरकते नजर आ जाते हैं।
नागपुरी में फगुआ गाने की परंपरा है, जो एक महीने तक गाया जाने वाला राग है। इसमें 21 तरह की राग-रागिनियां होती हैं, लेकिन अब 6 राग ही बचे हैं। झारखंड के लोक कलाकार दीनबंधु ठाकुर इस संस्कृति को बचाने के प्रयास में जुटे हैं। वर्तमान समय में वह डॉ रामदयाल मुंडा कला भवन रांची और राम लखन सिंह यादव कॉलेज, रांची के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग में सप्ताह में एक दिन शनिवार को नि:शुल्क सेवा देते हैं, जिसमें वह विद्यार्थियों को फगुआ राग का प्रशिक्षण देते हैं।
दीनबंधु ठाकुर फगुआ राग के बेहतरीन जानकारों में से हैं। वह बताते हैं कि फगुआ 50-60 साल पहले गांवों घर-घर में खेला जाता था। उस समय बुजुर्ग फगुआ गीत गाते थे। नागपुरी फगुआ लोक नृत्य गीत भी है, जिसमें झूमर में महिला या पुरुष दोनों वृत्ताकार दाहिने से बाएं घूमते हुए नाचते हैं। यह फागुन के मौसम का नृत्य है। फगुआ नृत्य में पुरुष पगड़ी, सफेद कुर्ता, गंजी, धोती और रंगीन गमछा कमर में बांधे रहते हैं। इसमें नृत्य की अवधि गीत की लंबाई पर निर्भर रहती है, वैसे यह नृत्य रात में अधिक होता है। लोग रात-रात भर नाचने, गाने, बजाने में मस्त रहते हैं।
फगुआ में कुछ इस तरह से राग और गीत हैं:
ठेठ फगुआ
हो..हो जला…जमुना कईसे भरब गगरी.
ऐरी ..ऐरी …..ऐरी
ठावे जे भरो मोए गगरी न डुबत री
निहुरी भरो मोए भींजे चुनरी
जला जमुना कईसे भरब गगरी
पंचरंगिया फगुवा राग
राधे कुंजा गली..
खेलें मुरलीधर कान्हा कदम तरे कुंज गली।
हां जी राधा सहित सुंदर छवि
सब गोपी को संग लाय
डेग चले साखिन मिली जहां बसय कृष्णा कन्हाय
निर्गुण फगुवा
ऐरी….ऐरी ….ऐरी
चेतु चेतू रे मन
बहुत संकट भयो मनुख तन
फगुवा पुछारी राग
मकरा कर जाल में बाघ बाझी जाय
केके कहूं के सूनी
के पतियाय…
युवा शोधार्थी पप्पू कुमार महतो कहते हैं कि जनजातीय समुदाय का युवा वर्ग अपनी संस्कृति से विमुख हो रहा है, इसके कारण संगीत की राग-रागिनियां विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई हैं। यही स्थित कई जनजातीय नृत्य की भी है। गांवों में अखड़ा संस्कृति का लगभग खत्म होना भी इसका एक कारण है।
हालांकि, लोक कलाकार पद्श्री मुकुंद नायक, पद्श्री मधु मंसूरी हंसमुख जैसे लोग व्यक्तिगत प्रयास से जनजातीय नृत्य और संगीत को संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं और युवा कलाकारों का दल तैयार कर रहे हैं।