रायपुर
बस्तर के आदिवासी समाज की अपनी अलग दिवाली होती है जिसे ‘दियारी तिहार’ यानी दिवाली त्यौहार कहा जाता है। आम तौर पर यह पर्व तीन दिनों से लेकर एक महीने तक मनाया जाता है। एक महीने का समय इसलिए की वे दूसरे गांवों में रहने वाले रिश्तेदारों के यहां भी दियारी मना सके।
सामान्य दिवाली में धनतेरस, लक्ष्मी पूजा और गोर्वधन पूजा का अनुष्ठान किया जाता है। बस्तर के आदिवासी भी तीन दिन तक दियारी मनाते हैं। लेकिन वे मूर्ति रुपी लक्ष्मी पूजन नहीं करते हैं। वे लक्ष्मी की पूजा करते हैं, किन्तु उनके लिए खेतों में खड़ी फसल ही लक्ष्मी (लछमी) का स्वरूप होती है।
धान की फसल घरों में पहुंचने के बाद यह पर्व पूस माह से लेकर माघ पूर्णिमा तक मनाया जाता है। दियारी मनाने का दिन गांव के पुजारी की अनुमति से आहूत ग्राम मुखियों-प्रमुखों की बैठक में सुनिश्चत किया जाता है। इसमें माटी पूजा का महत्व होता है और यह अन्न, पशुधन धोरई तथा चरवाहा पे केंद्रित होता है।
दियारी तिहार के अंतर्गत इनके रीति रिवाज़ों में जान-माल की सुरक्षा के लिए मगरमच्छ की पूजा-अर्चना करना और गुड़ी (आदिवासियों का पूजा स्थल) में शीतला माता से गांव की खुशहाली और समृद्धि की कामना करना शामिल है। वे जंगल में दीप भी जलाते हैं और धान की बालियों को खेत से लाकर उस फसल-लक्ष्मी का विधि पूर्वक विवाह भी रचाते हैं।
कार्तिक महीने की अमावस्या को मनाई जाने वाली दीवाली वे आमतौर पर नहीं मनाते। वे इस दीवाली को बड़ी दियारी या राजा दियारी कहते हैं। हालंकि वे अपनी दियारी तिहार भी क्वांर कार्तिक के महीने में ही मनाते हैं।
तीन दिनों तक मनाये जाने वाली दियारी तिहार में पहले दिन खड़ी फसल की कलियों की नारायण राजा के साथ वैवाहिक अनुष्ठान की रस्म अदा की जाती है और धन-धान्य से घर को परिपूरित रखने का आव्हान किया जाता है।
धोरई चरवाह पशुधन मालिक के घर जाकर उन्हें शराब, सलफी पिलाता है और उनका सम्मान करता है। संध्या में पुन: पशुधन स्वामी की गौशाला में जाकर सन की बनी रस्सी (चुई) को पशुओं के गले में बांधकर प्रणाम कर जेठा रस्म की अदायगी करता है। पशुधन मालिक चरवाहों को धान देकर विदा करते हैं।
दूसरे दिन पशु स्वामी खिचड़ी तैयार करता है और स्वयं पशुओं को खिलाकर उन्हें फूलमाला पहना व लाली टीका लागाकर प्रणाम करता है। शाम को चरवाह धोरई बाजे-गाजे के साथ आकर पुन: गृह स्वामियों को मदिरा, सल्फी का सेवन कराकर सम्मानित करता है। बदले में पशुधन मालिक उन्हें फिर धान देते हैं जिसे वह बाजा बजाने वालों को पारिश्रमिक के रूप में बांटता है।
पर्व के तीसरे दिन गोठान पूजा का आयोजन होता है। इस दिन पशुधन मालिक अपने-अपने पशुओं को सजाकर उनके सीगों पर नए कपडे लपेट कर उन्हें गोठान ले जाते हैं। गाय बैलों को वे तेजी से दौड़ते हैं। धोरई दौड़कर उन्हें पकड़ते हैं और उनके सीगों में लिपटी धोती या कपडे को खोलकर रख लेते हैं। पशु स्वामियों से घर की गृहिणी धान लेकर आती हैं और एक निश्चित स्थान पर उड़ेल देती हैं जिन्हे चरवाहों का वार्षिक पारिश्रमिक कहा जाता है।
(कुछ इनपुट UnexploredBastar से साभार)