वाकई एकजुटता में ताकत होती है। ओडिशा के कंधमाल जिले में गरीबी से ग्रसित कई गांवों में सहकारी संघों ने यह उक्ति सच साबित कर दिखाई है। करीब 16 साल पहले जयलम्बा गांव में इसी संख्या बल यानी सहकारी संघ के बूते ग्रामीण महिलाओं ने साहूकार के अत्याचार को खत्म करने का फैसला लिया। पहले यहां ग्रामीण साहूकार के चंगुल में फंसे रहते थे। जो कुछ कमाते, कर्ज/ब्याज के रूप में साहूकार ले जाता। इन कोंध आदिवासी महिलाओं ने इस संकट से बाहर निकलने और अमीरों से ऋण पर निर्भरता से छुटकारा पाने के लिए महिला संघ का गठन किया।
सामूहिक योगदान से बैंक स्थापित किया गया और जरूरतमंद लोगों को इससे जोड़ा गया। परिवार के लिए भोजन चाहिए, खेतों के लिए बीज अथवा अन्य कामों के लिए नकद पैसा, यह सहकारी बैंक अपने खजाने से ग्रामीणों की हर जरूरत पूरी करता है। अब ग्रामीणों को साहूकार की प्रताडऩा का डर नहीं सताता है।
जयलम्बा संघ की गीतांजलि कन्हार कहती हैं कि यदि फसल अच्छी नहीं हुई, तो कोई चिंता की बात नहीं, यह सहकारी बैंक अनाज भी मुहैया करा देता है। स्वास्थ्य संबंधी समस्या है और इलाज के लिए पैसे नहीं है तो इस संकट से निपटने में भी यह मदद कर सकता है। यही नहीं, शादी-ब्याह जैसे समारोह में भी यह बैंक बड़ा सहारा बनकर खड़ा होता है। सुकून की सांस लेते हुए कन्हार कहती हैं कि साहूकार के डर में इतने साल बिताने के बाद यह संघ हमें स्वाभिमान से जीना सिखा रहा है। यह बहुत अच्छी बात है।
दरअसल, गरीबी के खिलाफ ठोस और निरंतर जंग की शुरुआत कंधमाल जिले के 60 गांवों में एसोसिएशन फॉर रूरल एरिया सोशल मॉडिफिकेशन, इम्प्रूवमेंट एंड नेस्लिंग (अरासमिन) की मदद से सन 1998 में हुई थी। इस सामूहिक आंदोलन में अब कालाहांडी और बोलंगीर जैसे पड़ोसी जिलों को मिलाकर 260 गांव शामिल हो चुके हैं।
प्रारंभ में अरासमिन के लिए आदिवासियों को इस आंदोलन के आर्थिक आधार के बारे में समझाना बहुत मुश्किल साबित हुआ, लेकिन तीन महीने की अथक कोशिशों के बाद जमीन पर इसका असर दिखने लगा। अरासमिन के निदेशक एसी राउतरे का कहना है कि अब सब कुछ बहुत अच्छी तरह चल रहा है।
कैसे काम करता है यह सहकारी बैंक
अब सवाल यह उठता है कि आखिर यह बैंक काम कैसे करता है? तो इसकी कार्यप्रणाली बड़ी सरल है। गंभरी गुडा संघ, कालाहांडी की कौशल्या मांझी बताती हैं कि फूड बैंक में दान करने के लिए संघ का प्रत्येक सदस्य प्रतिदिन एक मुट्ठी चावल बचाता है। प्रत्येक पखवाड़े के अंत में ये चावल फूड बैंक में जमा कर दिए जाते हैं।
चूंकि अलग-अलग घरों से आने के कारण यह चावल भिन्न-भिन्न किस्मों का मिश्रण हो जाता है। इसलिए पहले सहकारी समिति इस चावल को बेचती है। इसे बेचकर जो रकम मिलती है, उससे अपने सभी सदस्यों के लिए एक ही किस्म का बेहतर गुणवत्ता वाला चावल खरीदा जाता है।
हालांकि बाद में महिलाओं ने बाजरे की स्वदेशी किस्म कोडो धान (पासपालम स्क्रोबिकुलेटम) आदि उगाना शुरू कर दिया। अधिकांश महिलाओं के एक जैसी फसल उगाने के कारण एक ही किस्म का अनाज एकत्र होने लगा और छंटाई या बाजार में बेचने की समस्या से काफी हद तक छुटकारा मिल गया।
इस बैंक की खासियत यह है कि तीन महीने के लिए उधार ली गई रकम पर सदस्य को कोई ब्याज नहीं देना पड़ता। हां, यदि इस अवधि में रकम नहीं दे पाए, तो ब्याज के रूप में 25 प्रतिशत अधिक जमा करना होता है।
कनेरसिंग संघ, बोलंगीर की मालती डेढेरिया ऐसी स्वदेशी किस्मों के फायदे विस्तार से बताती हैं। वह कहती हैं कि कोडो धान की फसल को कम पानी जरूरत पड़ती है। इसमें न तो उर्वरक की आवश्यकता होती है और न ही कीटनाशक की। ये स्वदेशी किस्में पर्यावरण के अनुकूल भी होती हैं, जो मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखती हैं।
बीज बैंक के लिए प्रत्येक आदिवासी परिवार ने शुरू में हर महीने कोडो बाजरा चावल की आठ किस्मों के साथ-साथ मक्का, लौकी, बीन्स और अन्य फसलों के 50-50 ग्राम बीज का योगदान दिया। इसके बाद ये सभी लोग 100 ग्राम बीज दान करने लगे। बीज ऋण पर ब्याज तीन महीने के बाद देय होता है, जो 50 प्रतिशत से 200 प्रतिशत तक होता है।
इस बैंक की खासियत यह है कि तीन महीने के लिए उधार ली गई रकम पर सदस्य को कोई ब्याज नहीं देना पड़ता। हां, यदि इस अवधि में रकम नहीं दे पाए, तो ब्याज के रूप में 25 प्रतिशत अधिक जमा करना होता है।
गभरासा महिला संघ, बोलंगीर की पलंगा कन्हार कहती हैं कि बैंक में जमापूंजी निश्चित रूप से उनकी जीत है। प्रत्येक सदस्य इसमें प्रति माह 5 रुपये का योगदान करता है। यदि हम किसी प्रोजेक्ट पर काम करते हैं, तो सभी सदस्य एक दिन का वेतन इसके लिए देते हैं। कुई बोली में इस व्यवस्था को रीडा कहा जाता है।
इस सहकारी बैंक की एक और विशेषता यह भी है कि सावधानी के तौर पर धनवान लोगों को इससे दूर रखा जाता है। अरासमिन के राउतरे स्पष्ट कहते हैं कि संपन्न परिवारों के किसी भी सदस्य को संघ में शामिल नहीं किया जाता, क्योंकि उनके इसमें मोटा निवेश कर मनमानी करने और गरीब सदस्यों की आवाज को दबाने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसी ठोस व्यवस्था के कारण ही सामूहिक प्रयासों का लाभ उठाकर आदिवासी अब अधिक सुरक्षित जीवन जी रहे हैं।