रंगमंच हमें अक्सर जीवन की क्षणभंगुरता को दिखाता है, लेकिन ओडिशा में तो कलाकार स्वयं अल्पकालिक हैं। भुवनेश्वर स्थित एक गैर सरकारी संगठन नाट्य चेतना 1986 से आदिवासियों के बीच रंगमंच की संस्कृति को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।
इस संगठन ने अनेक आदिवासी कलाकारों को मंच के लिए प्रशिक्षित किया है, जिनके माध्यम से 25 लंबे नाटकों और 50 से अधिक साइकिल अभियानों का मंचन किया गया।
नाट्य चेतना के सचिव डॉ. सुबोध पटनायक कहते हैं कि क्या, कब और कैसे गाना, नाचना और संगीत बजाना है, आदिवासी कलाकार जानते हैं। वे प्रशिक्षण के दौरान आसानी से अपनी योग्यता साबित भी करते हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वे बिना कोई पहचान हासिल किए कुछ समय बाद ही गायब हो जाते हैं।
साइकिल अभियान रंगमंच का एक ऐसा अभिनव रूप है, जहां नाट्य चेतना टीम छोटे-छोटे नाटकों के मंचन के लिए साइकिलों से गांव-गांव जाती है। दिन डूबने पर साइकिल चालक कलाकारों की यह टीम ठहर जाती है और ग्रामीणों को नाटक मंचन के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार यह टीम क्षेत्र की संस्कृति को पुनर्जीवित करने के बड़े लक्ष्य की दिशा में काम करती है। कई आदिवासी लोग इस टीम के साथ नाटक मंचन में शामिल होते हैं।
पटनायक का दुख गैरवाजिब नहीं है। रायगडा, अंगुल, क्योंझर, मयूरभंज और कंधमाल जिलों के 500 से अधिक युवा आदिवासी कलाकार ऐसे हैं, जिन्होंने अब तक नाट्य चेतना के साथ काम किया है, लेकिन आज उनमें से ज्यादातर इस मंच को छोडक़र चले गए और कभी वापस नहीं लौटे।
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ऐसी ही कंधमाल की आदिवासी लडक़ी लकी हैं, जिन्होंने 2017-18 में भोपाल और कोलकाता में थिएटर ओलंपियाड में नाटक नियान में मुख्य भूमिका निभाई थी। जब उनसे संपर्क करने की कोशिश की गई तो उन्होंने यह कहते हुए बात करने से इनकार कर दिया कि वह अस्वस्थ हैं। लकी अभी खुर्दा में रहती हैं।
ऐसे बहुत से उदाहरण है। कुछ आदिवासी कलाकारों को घर में गरीबी के कारण पांव पीछे खींचने पड़ते हैं। कई लोग छोटे पर्दे पर हाथ आजमाते हैं और असफलता मिलने पर निराश होकर सब कुछ छोड़ देते हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं जो रोजी-रोटी के लिए मजदूरी करने निकल जाते हैं, क्योंकि घर की जरूरतें कलाकार पर हावी हो जाती हैं।
कुछ आदिवासी कलाकार ऐसे भी हैं जो अपने पसंदीदा थिएटर के बारे में अधिक सकारात्मक रूप से बात करते हैं। अंगुल के रहने वाले गोंड आदिवासी उमाकांत बताते हैं कि वह भुवनेश्वर में एक आईटी कोर्स कर रहे हैं। वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कहते हैं कि नौकरी मिलने के बाद वह अपने थिएटर को भी जारी रखेंगे।
बेहतर जीवन जीने की आस लिए आगे बढऩे वाले सैकड़ों अज्ञात कलाकारों में से एक है नबरंगपुर के उमरकोट शहर का नीलांबर मिरगन। यह पनिका आदिवासी तीन साल तक नाट्य चेतना से जुड़ा रहा, लेकिन फिर गायब हो गया। जब उनकी अनुपस्थिति के बारे में पूछा गया तो बताया कि वह अब चेन्नई की एक कंपनी में अस्थायी नौकरी कर रहा है। साथ ही साथ लोक रंगमंच पर अपना शोध भी कर रहा है।
हालांकि, कुछ ऐसे भी हैं जो अपने पसंदीदा थिएटर के बारे में अधिक सकारात्मक रूप से बात करते हैं। अंगुल के रहने वाले गोंड आदिवासी उमाकांत बताते हैं कि वह भुवनेश्वर में एक आईटी कोर्स कर रहे हैं। वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कहते हैं कि नौकरी मिलने के बाद वह अपने थिएटर को भी जारी रखेंगे।
वर्ष 2011 में चटगांव में एक इंडो-बांग्लादेश प्रोडक्शन बाजे सेई घोंटा में उमाकांत की भूमिका को काफी सराहा गया था।
इसी प्रकार क्योंझर में संथाल जनजाति के कांग्रेस नायक थे। वर्ष 1997-98 में नाट्य चेतना के 28-दिवसीय यूरोप दौरे के दौरान नायक ने फ्रांस, इटली, बेल्जियम और लक्जमबर्ग में 23 शो किए। बाद में उन्होंने सेंटर फॉर यूथ एंड सोशल डेवलपमेंट के लिए कई शो की एंकरिंग की। पटनायक बताते हैं कि दुख की बात यह है कि सेरेब्रल मलेरिया होने के कारण उनका निधन हो गया।