आदिवासियों के प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से इलाज (जड़ी-बूटी चिकित्सा) के तौर-तरीकों को आधुनिक समाज स्वीकार नहीं करता है। दूरदराज में काम करने वाले ऐसे पारम्परिक चिकित्सकों को अक्सर झोलाछाप या नीम-हकीम कहकर पुकारा जाता है। यही कारण है कि पारम्परिक चिकित्सा और उपचार की ये प्राचीन विधियां अब विलुप्त होती जा रही हैं।
बातचीत में नॉर्थ ईस्ट ट्रेडिशनल हीलर एसोसिएशन (नेथा) के अध्यक्ष डॉ. वाई हेशेतो चिशी पूरी गंभीरता से यह समझाने की कोशिश करते हैं कि किस प्रकार यह पारम्परिक चिकित्सा प्रणाली अंधविश्वास और अनुष्ठान नहीं, बल्कि इससे आगे बढक़र पारम्परिक इलाज में कारगर है। वह कहते हैं कि प्रकृति के पास सूक्ष्म संकेतों के माध्यम से प्रत्येक जीव के साथ संवाद करने का एक अनूठा तरीका होता है। आदिवासी समुदायों के लोग प्रकृति के साथ इस आपसी समझ को युगों-युगों से संरक्षित रखे हुए हैं, क्योंकि वे सदैव ही जल और जंगलों के सबसे करीब रहे हैं। इसी के बूते उन्होंने धीरे-धीरे स्वदेशी/जैविक चिकित्सा पद्धति को खड़ा किया है।
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डॉ. चिशी कहते हैं कि उत्तर पूर्व में 7,500 से अधिक औषधीय पौधे हैं। नीम में कई रोगों को दूर करने और दर्द निवारक गुण होते हैं। यह पुरानी एलर्जी और उच्च रक्तचाप को भी ठीक कर सकता है। डॉ. चिशी जोर देते हुए कहते हैं कि इस पारम्परिक चिकित्सा पद्धति का शहरी जीवन में बहुत कम प्रभाव है, जबकि आदिवासी चिकित्सक व्यक्ति की नब्ज से ही बीमारी के सही स्वरूप और कारण का पता लगा सकते हैं।
डॉ. चिशी जानवरों और पक्षियों से होने वाले कुछ अनोखे इलाज के बारे में भी जानते हैं। वह बताते हैं कि लकड़ी के कोयले से जल जाने पर होने वाले बड़े घाव पर भी यदि कौवे का निचला पंख लगाया जाए तो यह सबसे प्रभावी एंटीसेप्टिक दवा का काम करता है। यही नहीं, साही के पेट का भुना हुआ मांस अस्थमा और निमोनिया का कारगर इलाज है।
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आदिवासियों का मानना है कि उन्हें पारम्परिक चिकित्सा पद्धति आनुवंशिक रूप से विरासत में मिली है। इस समुदाय से आने वाले चिकित्सक केवल व्यक्ति की नब्ज टटोल कर ही बीमारी की सटीक प्रकृति और कारण का पता लगा सकते हैं।
मणिपुर के एक सुदूर कस्बे में होम्योपैथ से इलाज करने वाली डॉक्टर राभा का मानना है कि कुछ आदिवासी चिकित्सकों में एक्स-रे जैसी दृष्टि होती है। वे व्यक्ति के शरीर के अंदर तक देखकर बता सकते हैं कि आखिर मर्ज क्या है। आदिवासी औषधीय उपचार पर शोध कर रहीं डॉ. राभा यह भी कहती हैं कि हालांकि हम रोग की पुष्टि के लिए मरीज को प्रयोगशाला में जांच कराने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं, ताकि गलती की गुंजाइश न रहे।
दिलचस्प बात यह है कि कई आदिवासी चिकित्सक रोग के सटीक कारण का आकलन करने के लिए स्वप्न की व्याख्या पर भी भरोसा करते हैं और वे स्वप्न के मायने बताने वाले भविष्यवक्ताओं के साथ जुड़े हुए हैं। उनका मानना होता है कि सभी कष्ट और उनके इलाज पूर्वनिर्धारित हैं, जो इलाज के मामले में समय को बहुत ही पाबंद मानते हैं। अर्थात उनका मत है कि समय पर ही मरीज ठीक हो सकता है।
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डॉ. चिशी कहते हैं कि कई बार ऐसे मरीज मेरे पास आए हैं, जिन्हें भविष्य में इलाज मिलना तय था। मैंने उन्हें यह बात धीरे से बताई भी। जब एक मरीज को इलाज के लिए पकड़ते हैं, तो हम सहज रूप से यह जानते हैं कि कौन सा पौधा अथवा जड़ी-बूटी चिकित्सा इसके इलाज में कारगर होगी और यह कहां मिलेगी। यह समझना महत्वपूर्ण है कि यदि इलाज नसीब में नहीं है, तो ऐसा होगा ही नहीं।
डॉ. चिशी के पास ऐसे कई अनूठे मामले आए हैं। वह उनमें से एक के बारे में विस्तार से बताते हैं। हृदयाघात के बाद एक व्यक्ति को जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा गया था। उसके परिवार के लोगों ने मुझसे मरीज का इलाज करने के लिए कहा। मैंने अस्पताल के अधिकारियों से दुआ-प्रार्थना के लिए एक बार मरीज के पास जाने देने का अनुरोध किया। डॉक्टर इसके लिए राजी हो गए। पास जाकर मैंने धीरे से मरीज के हाथों की मालिश की और रक्त परिसंचरण को पुनर्जीवित करने के लिए एक तंत्रिका को उत्तेजित किया। इससे मरीज की सांसें तेज-तेज चलने लगीं और उसकी जान बच गई।
आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को देखते हुए आजकल कोई भी यह महसूस कर सकता है कि इस क्षेत्र में ज्ञान का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है। डॉ. राभा इसे और स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि ऐसे आध्यात्मिक इलाज में यदि कपटपूर्ण साधनों को अपनाया जाता है, तो उन लोगों के हाथों से उपचार की शक्ति हमेशा के लिए चली जाती है।