आदिवासी समुदायों में कभी बहुत प्रचलित और प्रभावी रही वैद्य अथवा प्राकृतिक चिकित्सा प्रद्धति अब दम सी तोड़ रही है। आधुनिक चिकित्सा का सुलभ हो जाना और स्वास्थ्य-स्वच्छता के पैमानों में बदलाव इसका प्रमुख कारण रहा है, लेकिन आज भी वैद्य परम्परा के महत्व को कम करके नहीं आका जा सकता। इसी के मद्देनजर ओडिशा के कोंध आदिवासी समुदाय के वैद्य अथवा जानकार अपनी पारम्परिक चिकित्सा प्रणाली को बचाने, प्रचार करने के लिए ठोस उपायों की जरूरत को महसूस कर रहे हैं। अब वे पारम्परिक वैद्य चिकित्सा को संरक्षित करने के लिए वार्षिक स्तर पर सम्मेलनों का आयोजन कर रहे हैं।
पखवाड़े भर चलने वाले इस प्रकार के सम्मेलन के दौरान ये अनुभवी वैद्य एक विशाल संयुक्त नॉलेज सेंटर स्थापित करने के उद्देश्य से अपने तमाम संसाधनों का प्रयोग करते हैं।
इस प्रकार का पहला सम्मेलन 2015-16 में कंधमाल के जी उदयगिरि ब्लॉक के सारंगडा में एसोसिएशन फॉर रूरल एरिया सोशल मॉडिफिकेशन, इम्प्रूवमेंट एंड नेस्लिंग (एआरएएसएमआईएन) के तत्वावधान में आयोजित किया गया था। इस पहले सम्मेलन में 30 जानकार जुटे थे।
अब इस प्रकार के सम्मेलन कंधमाल के 240 गांवों और बोलांगीर एवं कालाहांडी के 60-60 गांवों में आयोजित किए जा रहे हैं।
सभ्यता के आरंभ से ही वैद्य अथवा प्राकृतिक चिकित्सा प्रद्धति समाज का अभिन्न हिस्सा रही है। इन जानकार व्यक्तियों यानी ज्ञानवान वैद्यों ने अपने इलाज करने के प्रभावी देसी तौर-तरीकों से जनजातियों के बीच हमेशा ही बड़ा सम्मान कमाया है।
हालांकि, समय के साथ बदलाव नहीं किए जाने के कारण अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस पारम्परिक चिकित्सा पद्धति पर भारी पड़ता जा रहा है। बहुत से तंत्र-मंत्र तो विलुप्त ही हो चुके हैं।
बोलांगीर के गंभीरीगुड़ा गांव के रहने वाले एक वैद्य रघुनाथ डेहरिया अपने पूर्वजों द्वारा शिकार करने के लिए मंत्र के जरिए सक्रिय किए गए हथियार का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वह तो अब गायब ही हो गया है। यह हथियार कमोबेश ऑस्ट्रेलिया में आदिवासियों द्वारा इस्तेमाल किए गए बुमेरांग से मिलता-जुलता था। लेकिन, अब सम्मेलनों के जरिए फिर इस परम्परा को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। वैद्य रघुनाथ दावा करते हैं कि इन आदिवासी सम्मेलनों में जाकर उन्होंने स्वयं 15 से अधिक हर्बल दवाओं का ज्ञान हासिल किया है।
बोलंगीर के गबरभासा निवासी एक और जानकार किता डेहरिया सम्मेलनों में भाग लेने वाले लोगों के बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं। वह कहते हैं कि अपने गांव में ग्रामीणों की ओर से पृथ्वी, पहाड़ों और पेड़ों की पूजा करने के लिए अनुष्ठान करने वाले वैद्य अथवा जानकार ही इन सम्मेलनों में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह सम्मेलन अब जिला स्तर पर आयोजित किए जा रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या में वैद्य जुटते है।
डेहरिया ने एक गैर-जानकार को अपने इलाज के तरीके के बारे में बताने से साफ इनकार कर दिया। हालांकि वह कहते हैं कि यदि किसी मरीज की हालत बेहद गंभीर है तो हम उसके इलाज को कभी भी लंबा नहीं चलाते हैं। हम उसे फौरन नजदीकी अस्पताल ले जाने की सलाह देते हैं।
उन्होंने जोर देकर कहा कि सम्मेलनों से न केवल वैद्य परम्परा का विस्तार हो रहा है, बल्कि इलाज के मामले में जानकारों को उनकी सीमाओं का एहसास कराने में भी मददगार साबित हो रहे हैं।
एआरएएसएमआईएन के सचिव बीआर राउतरे कहते हैं कि उनके सम्मेलन सिर्फ एक गंभीर विचार-विमर्श का ही मंच नहीं हैं, यहां दावतों और मौज-मस्ती का भी पूरा इंतजाम किया जाता है। कुल मिलाकर आदिवासी डॉक्टरों के लिए यह 15 दिन का मिलन समारोह जैसा है।