आदिवासियों का अधिकांश जीवन यात्राओं में व्यतीत होता है। जैसे-जैसे गर्मी का मौसम आता है, कई जनजातियां गर्मी से बचने के लिए मैदानी इलाकों से पलायन कर पहाड़ों में चली जाती हैं। जब हाड़ कंपा देने वाली सर्दियां आती हैं तो वे बर्फ ढकी चोटियां छोडक़र अपने घरों और हरे-भरे चरागाहों की ओर लौट आते हैं।
आदिवासी लोग अपनी यात्रा के दौरान प्रकृति मां के साथ सुर में सुर मिलाकर गाते चलते हैं और पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों का उपयोग कर अपने परिवेश के साथ बेहतर रिश्ता, जुड़ाव प्रदर्शित करते हैं।
इस यात्रा के दौरान आदिवासी प्रकृति मां के साथ सुर मिलाकर गाते हैं और अपने परिवेश के साथ खास जुड़ाव प्रदर्शित करने के लिए पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों का उपयोग करते हैं। गुर्जर/बकरवाल आदिवासी और लेखक डॉ. जावेद राही ने अक्सर जम्मू और कश्मीर के लोक गीतों में आदिवासियों को ढोल का इस्तेमाल करते देखा है।
उन्होंने कहा कि खानाबदोश लोग अपने पालतू पशुओं के साथ ही पहाड़ों की ओर पलायन करते हैं। अपने जानवरों के साथ दूर से संवाद करने, उन्हें अपने साथ चलने के संकेत देने के लिए वे हाथ से बने संगीत वाद्ययंत्रों का उपयोग करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि शिकारी जानवरों को अपने मवेशियों व बच्चों से दूर रखने के लिए भी आदिवासी विशेष तरीके से वाद्ययंत्र बजाते हैं।
घुमंतू आदिवासियों की जेब में अक्सर पाया जाने वाला एक वाद्ययंत्र होता है बंजली। यह बांसुरी जैसा दिखता है और आकार में 12 इंच से लेकर लगभग 30 इंच तक लंबा होता है। शोपिया, महिया और जंगबाज जैसे लोक गीत बंजली पर सुने जाते हैं। बड़ा ही सुरीला, मदहोश कर देने वाला संगीत होता है यह।
जम्मू-कश्मीर के आदिवासी समुदाय प्रकृति मां की गोद में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वे अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर होते हैं और उस भाषा को भलीभांति समझते हैं, जिसमें वह उनके साथ संवाद करती है।
आदिवासी लोग अपनी यात्रा के दौरान प्रकृति मां के साथ सुर में सुर मिलाकर गाते चलते हैं और पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों का उपयोग कर अपने परिवेश के साथ बेहतर रिश्ता, जुड़ाव प्रदर्शित करते हैं।
कुछ क्षेत्रों में खानाबदोश लोग मुंह से बजाए जाने वाले वाद्य यंत्र चुंग का प्रयोग करते हैं। यह लोहे से बना पांच से सात इंच लंबा यंत्र होता है, जिसमें तांबे का एक तार होता है। यह आदिवासी चुंग अपने फारसी समकक्ष से इस मायने में अलग है कि इसके तीन भाग होते हैं- दो सीधी रेखाओं को मिलाने वाला एक वक्र, जिसके बीच में एक तार होता है – और इसे मुंह से बजाया जाता है।
एक बार बहुत ही लोकप्रिय रहा यह वाद्ययंत्र अब लगभग विलुप्त सा हो गया है। जम्मू-कश्मीर के गुर्जरों में बहुत कम ही लोग ऐसे बचे हैं जो चुंग बजा सकते हैं। डॉ. राही ने अपनी पुस्तकों के लिए शोध करते हुए पाया कि चुंग जैसे कई पारंपरिक आदिवासी संगीत वाद्ययंत्र अब विलुप्त होने के कगार पर हैं।
उन्होंने इन पुराने संगीत उपकरणों को भौतिक रूप से और तस्वीरों एवं विवरणों के साथ संरक्षित करने की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया है, ताकि आने वाली पीढिय़ों को उनकी सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराने में मदद मिल सके।
(फ़ोटो – डॉ. जावेद राही)