सेलिब्रिटी शेफ गॉर्डन रैमसे को खुश करना आसान नहीं है, लेकिन एक आदिवासी चटनी ने न केवल उनका दिल जीत लिया, बल्कि अब वह उनके मेनू में भी शामिल हो गई है।
बस्तर की चटपटी चापड़ा चटनी एक ऐसी ही डिश है, जो ओडिशा और झारखंड में भी खूब लोकप्रिय है, लेकिन रैमसे की यात्रा के बाद से छत्तीसगढ़ की यह डिश विश्वभर में प्रसिद्ध हो गई।
ग्रामीण लोग लाल चीटियों को टमाटर, धनिया, लहसुन, अदरक, मिर्च, नमक और थोड़ी सी चीनी के साथ पीसते हैं। इस तरह तैयार होती है चिकनी, नारंगी रंग की स्वादिष्ट चापड़ा चटनी। इसे अमूमन ऐसे ही खाते हैं, लेकिन और अधिक स्वाद के लिए इसे तेल और प्याज में भूनकर परोसा जा सकता है।
चटनी की विशेष यूएसपी लाल चींटियां (ओकोफिला स्मार्गडीना) है। बस्तर के कोंडागांव के बहिगांव गांव के एक युवा श्यामलाल नेताम कहते हैं कि मृत चीटियों और उनके अंडों को सुखाकर उन्हें ओखली में या चपटे पत्थर (सिल) पर पीसा जाता है।
अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाने के लिए इसमें टमाटर, धनिया, लहसुन, अदरक, मिर्च, स्वादनुसार नमक और थोड़ी चीनी मिलाई जाती है और सबको साथ-साथ पीसकर चिकना, नारंगी पेस्ट बना लिया जाता है। यही है बस्तर की लोकप्रिय चापड़ा चटनी। श्यामलाल बताते हैं कि वैसे तो इसे इसी प्रकार खाया जाता है, लेकिन लोग तेल और प्याज के साथ भूनकर भी परोसते हैं।
चीटियों में फार्मिक एसिड का उच्च स्तर होने एवं तमाम मसाले पडऩे से यह चटनी बेहद गर्म हो जाती है। यह बस्तर के आदिवासी व्यंजनों का एक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण हिस्सा है। आदिवासी विक्रेता भी इस चटनी को मडई या साप्ताहिक बाजारों में साल के पत्तों से बने छोटे शंकु में रखकर बेचते हैं और लोग बड़े चाव से खरीदकर खाते हैं।
नेताम का कहना है कि गोंडी जनजाति की बोली गोंडी में चापड़ा का अर्थ पत्ती की टोकरी होता है। इससे मुराद वे घोंसले होते हैं जो चींटियां साल के पत्तों को एक साथ बुनकर बनाती हैं।
शोध से पता चलता है कि आदिवासी लोग सामान्य सर्दी, बुखार, पीलिया, आंतों की समस्याओं, खांसी को ठीक करने एवं भूख बढ़ाने के लिए चापड़ा चटनी खाते हैं। मलेरिया समेत कई रोगों के इलाज में यह रामबाण है।
इस चींटी प्रजाति का नर भयंकर तरीके से काटता है जिससे बहुत दर्द होता है। इसलिए इन चीटियों और उनके अंडों को एकत्र करना भी अपने आप में एक दुरुह कार्य है। नेताम बताते हैं कि ग्रामीण दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में घोंसलों के पास जाते हैं। उस समय ये चींटियां आराम कर रही होती हैं।
घोंसला तोडक़र इन्हें एकत्र करने से पहले नर चींटों को कुचल दिया जाता है, क्योंकि वे घोंसलों के चारों ओर सख्त सुरक्षात्मक घेरा बनाए हुए होते हैं। जिस टहनी पर घोंसला होता है, उस पूरी टहनी को तोडक़र गर्म पानी में डाल दिया जाता है ताकि चींटियां मर जाएं। उसके बाद खाना पकाने की प्रक्रिया शुरू होती है।
स्वाद के अलावा यह चटनी कई बीमारियों में रामबाण है। शोध से पता चलता है कि आदिवासी लोग सामान्य सर्दी, बुखार, पीलिया, आंतों की समस्याओं, खांसी को ठीक करने एवं भूख बढ़ाने के लिए चापड़ा चटनी खाते हैं। नेताम के अनुसार, आदिवासी इलाकों में आम बीमारी मलेरिया को रोकने में लाल चींटी का सेवन काफी मदद करता है।