प्रातकाली अथवा भोर का संगीत एक लोक संगीत है, जिसे नागपुरी और अन्य स्थानीय भाषाओं में प्रभाती या भिनसारिया भी कहा जाता है। इसे तीन अलग-अलग वर्गों में बांटा गया है। इसकी शुरुआत पाहिल सांझी से होती है, जिसमें राग नरम होते हैं और उसे अगले भव्य कार्यक्रम से पहले अभ्यास के तौर पर रखा जाता है।
इसके बाद अधरतिया है, जो देर रात या आधी रात के आसपास शुरू होता है और तडक़े तक चलता रहता है। इसमें संगीत तेज आवाज में होता है और गायन तथा नृत्य अपने चरमोत्कर्ष को छूते हैं। भिनसारिया सुबह-सुबह अथवा सूर्योदय से पहले गाया जाता है।
फगुआ एक और महत्वपूर्ण राग है, जिसे फाल्गुन के महीने में गाया जाता है। यह गीत राधा को समर्पित होता है, जिसमें उनके नाम का जाप करते हैं। दुर्भाग्यवश फगुआ राग अब विलुप्त होने के कगार पर है। फगुआ के पुछारी राग में एक पक्ष मुश्किल सवाल या पहेली पूछता है और दूसरा पक्ष तुकबंदी में उसका जवाब देता है। उदाहरण के लिए एक पक्ष गीत के जरिए सवाल करता है कि कौन सा फूल मानव जाति के सम्मान की रक्षा करता है, जिस पर दूसरा पक्ष जवाब देता है- कपास। यह कला एक तरह से कव्वाली से मिलती-जुलती है।
जैसा नाम से ही अंदाजा हो रहा है, दोहोरी राग में भी फगुआ की तरह दो टीमें या पक्ष होते हैं। यह मुख्य तौर पर लड़कों बनाम लड़कियों की रोचक प्रतियोगिता होती है। एक कलाकार या पूरी टीम व्यापक विषयों पर सवाल पूछती है और दूसरी टीम वाक्पटुता के साथ काव्यशैली में उसका उत्तर देती है। यह लोकप्रिय अंताक्षरी की तर्ज पर होता है।
यहां नृत्य भी कम जटिल और कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। चाहे बदलता मौसम हो या शादी-समारोह, घर में किलकारियां गूंजी हों अथवा धान की लहलहाती फसल आ रही हो, सभी मौकों पर नाच-गाकर खुशियां मनाई जाती हैं।
उरांव जनजाति के लोग आम तौर पर बैसाख के महीने में भरपूर फसल की उम्मीद के साथ पृथ्वी का आशीर्वाद लेने के लिए बाराव नृत्य करते हैं।
लाहसूया एक प्रकार का रेन डांस है, जिसमें दोतरफा ढोल या मैडोल बजाते हुए ओलों से राहत पाने की दुआ की जाती है।
मौजूदा दौर में आदिवासियों की सभी सुंदर नृत्य शैलियों पर खतरा मंडरा रहा है। आधुनिकता उनके रहन-सहन को बुरी तरह प्रभावित कर रही है, जिससे उनकी संस्कृति नष्ट होती जा रही है।
लाहसूया नृत्य
संथाल और नागपुरी महिलाएं भी विशेष रूप से अच्छी फसल के लिए विभिन्न अवसरों पर झेनाना झुमुर नृत्य करती हैं। इस तरह के पुरुषों के नृत्य को मर्दानी झुमुर कहा जाता है, लेकिन उनके इस नृत्य में मार्शल आर्ट भी शामिल होती है। इस मर्दानी झुमुर में ढोल, शहनाई, करताल और झांज के मधुर संगीत पर कुछ महिला नर्तकियां भी पुरुषों का साथ देती हैं। यह नृत्य नागपुरी और दक्षिणी जनजातियों के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय है।
लोकप्रिय झुमैर नृत्य में पुरुष और महिलाएं दोनों भाग लेते हैं। इसमें सभी नर्तक और नर्तकियां गोल घेरा बनाकर नाचते हैं और इसके लिए एक-दूसरे के धड़ के बीच अपनी बाहें डाल कर पकड़ लेते हैं। आदिवासी कपड़ों में पत्तों और पंखों के मुकुट से सजे सभी कलाकार अपनी अभिव्यक्ति और फुर्तीले फुटवर्क के साथ नृत्य करते हैं। कलाकारों की पोशाक रंगीन और कढ़ाईदार होती है। वे फसल के सीजन अथवा त्योहारों के मौके पर ढोल, मंदार, सारंगी, बांसुरी और करताल की धुन पर बड़ा ही मोहक नृत्य करते हैं।
आदिवासियों का एक अन्य प्रसिद्ध नृत्य छऊ है, जिसमें विभिन्न देवताओं का चित्रण होता है। यह एक प्रकार की नृत्य नाटिका है, जो बड़े छऊ मास्क यानी रंगीन मुखौटे पहने कलाकार बड़े से मैदान में जलती हुई मशालों के साथ प्रस्तुत करते हैं। इसमें महाभारत और रामायण की कथाओं के अभिनय में प्रभाव डालने के लिए नगाड़ों और ढोल का उपयोग किया जाता है।
युद्ध की तैयारी को प्रदर्शित करते पाइका नृत्य पर मुंडा जनजाति की विशेषज्ञता मानी जाती है। पाइका नृत्य को कलाकार मार्शल आर्ट के साथ प्रस्तुत करते हैं। रंगीन वस्त्र, सुरक्षा के लिए सिर पर हेडगियर और छाती पर लोहे की चौड़ी प्लेट लगाए कलाकार हाथ में तलवार तथा ढाल लेकर जब मैदान में उतरते हैं तो लगता है, जैसे युद्ध के लिए आए हों।
यह नृत्य इतना आक्रामक होता है कि देखने वालों में जोश भर देता है। वैसे यह नृत्य अमूमन मेहमानों के स्वागत समारोह में पेश किया जाता है। कलाकारों की पायल के घुंघरुओं के साथ ढोल, शहनाई, नरसिंह और भीर का संगीत कानों में रस भी घोल जाता है।
खुशी के मौके पर आदिवासी महिलाएं झिटका और डांगा नृत्य पेश करती हैं। इसके अलावा हल्का-फुल्का और हंसी-मजाक वाला डोमकच नृत्य पारंपरिक रूप से दूल्हे के परिवार की महिलाओं द्वारा उस समय किया जाता है जब वह शादी के बाद पहली बार अपनी दुल्हन को घर लाता है। घोड़ा नाच एक ऐसा नृत्य है जो सिर्फ पुरुष करते हैं। इस दौरान वे घोड़े का रूप बनाने के लिए कमर से नीचे उसी प्रकार की वेशभूषा पहनते हैं।
हालांकि, मौजूदा दौर में इन सभी सुंदर नृत्य शैलियों को खतरा उत्पन्न हो गया है। आधुनिकता आदिवासियों के रहन-सहन को बुरी तरह प्रभावित कर रही है, जिससे उनकी अधिकांश संस्कृति नष्ट होती जा रही है।
राज्य सरकार का पर्यटन विभाग, सांस्कृतिक संगठनों के साथ मिलकर इन कलाओं को सहेजने का पूरा प्रयास कर रहा है ताकि आने वाली पीढिय़ां झारखंड की सांस्कृतिक संपदा को देख और समझ सकें।