पहला सशस्त्र विद्रोह
पहला सशस्त्र विद्रोह 1784 में औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ उभरा। वर्ष 1770 के अकाल के बाद जमींदारी व्यवस्था का 10 साल का समझौता हुआ। इससे गरीब संथालों का जीवन बहुत ही दयनीय हो गया। तिलका मांझी के नेतृत्व में राजमहल के पहरियाओं और संथालों ने औपनिवेशिक शासकों और स्थानीय जमींदारों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया।
ब्रिटिश कमिश्नर लेफ्टिनेंट ऑगस्टस क्लीवलैंड तिलका मांझी की गुलेल का निशाना बना और मारा गया। मांझी को बाद में पकड़ कर उन्हें घोड़े से बांधकर बिहार के भागलपुर ले जाया गया। यहीं उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन एक नायक का जन्म हो चुका था।
संथाल विद्रोह
कृषि के माध्यम से राजस्व आय में बढ़ोतरी के लिए औपनिवेशिक शासकों ने संथालों को जमींदारी व्यवस्था की जंजीरों में बांधने की कोशिश शुरू कर दी थी। वर्ष 1855 में सिद्धो और कान्हो मुर्मू के नेतृत्व में हजारों संथाल शासकों के इस जुल्म के खिलाफ खड़े हो गए। उन्होंने कलकत्ता तक मार्च किया। रास्ते में उनका सामना शक्तिशाली ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से हुआ। शक्तिशाली इसलिए, क्योंकि वे हथियारों से लैस थे और संथालों के पास अन्य पारंपरिक हथियारों के अलावा केवल धनुष बाण ही थे। फिर भी कई स्थानों पर बहादुर संथाल जवानों ने ब्रिटिश सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। हालांकि रास्ते में सिद्धो और कान्हो को पकडक़र मार दिया गया। इससे पहले सिद्धो और कान्हो की बहनें फूलो व झानो ब्रिटिश शिविर में घुस गईं और अपने भाइयों को सजा दिए जाने से पहले दुश्मनों के 21 सैनिकों को मार डाला।
सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के बाद साहिबगंज के भोगनाडीह में अपने पैतृक इलाके में सामाजिक कार्यों को अंजाम दे रहे मंडल मुर्मू दावा करते हैं कि वह सिद्धो, कान्हो, चांद, भैरो और उनकी बहनों फूलो तथा झानो की छठी पीढ़ी से हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा गठित एक जांच आयोग ने बाद में पाया कि संथालों की मांगें जायज थीं। इसके बाद एक नया कानून XXXVII अधिनियम-1855 बनाया गया, जिसे संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम के रूप में जाना जाता है। राज्य में यह कानून अभी भी लागू है।
सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के बाद साहिबगंज के भोगनाडीह में अपने पैतृक इलाके में सामाजिक कार्यों को अंजाम दे रहे मंडल मुर्मू दावा करते हैं कि वह सिद्धो, कान्हो, चांद, भैरो और उनकी बहनों फूलो तथा झानो की छठी पीढ़ी से हैं। इन सभी ने गरीब आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए अपने प्राण न्यौछावर किए।
मुर्मू कहते हैं कि उनके दिल में फूलो और झानो के लिए विशेष सम्मान है, जिन्होंने महिलाओं में चेतना जगाई।
स्वतंत्रता संग्राम
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वर्ष 1857 में दो भाइयों नीलांबर और पीतांबर ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडे गणपत राय, टिकैत उमराव सिंह, शाहिद लाल, शेख भिखारी, नादिर अली, जय मंगल सिंह, बुद्धू भगत समेत कई अन्य बहादुरों ने औपनिवेशिक शासकों से लड़ते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।
मुंडा विद्रोह
वर्ष 1857 के विद्रोह को दबाने और भारतीय शासकों को ब्रिटिश साम्राज्य के पेंशनभोगियों के रूप में सीमित करने के बाद औपनिवेशिक शासकों ने खूंटकट्टी प्रणाली को हाशिए पर धकेलकर छोटानागपुर क्षेत्र में दोबारा नए उद्यम बनाने के प्रयास किए। खूंटकट्टी प्रणाली के तहत मुंडाओं को अपने अधिकार क्षेत्र में सभी भूमि पर समान अधिकार प्राप्त थे। अंग्रेजों ने अपनी राजस्व आय बढ़ाने के लिए इन सामान्य होल्डिंग्स को व्यक्तिगत होल्डिंग्स में बदल दिया। इसने आदिवासियों को कर्ज के दुष्चक्र में फंसा दिया। ऋण नहीं चुका पाने के कारण साहूकारों और ब्रिटिश प्रशासन द्वारा उनकी भूमि हथिया ली गई।
आदिवासी बेरोजगारी का शिकार हो गए और उन्हें जबरन मजदूरी की दलदल में घुसना पड़ा। परंपरागत प्रशासनिक व्यवस्था जिसके माध्यम से लोग अपने ग्राम पंचायत स्तर पर दीवानी एवं फौजदारी जैसे मसलों को भी चर्चा कर सामूहिक निर्णय से निपटा लेते थे, को समाप्त कर दिया गया। वर्ष 1813 के चार्टर अधिनियम ने ईसाई मिशनरियों को भारत में अपने उद्देश्य का प्रचार करने की अनुमति दी। इसने मुख्य रूप से उन्हें आदिवासी समूहों को लक्षित करने की रणनीति बनाई, जिससे वे अपने धार्मिक विश्वास को बदल सकें और पारंपरिक मूल्यों से दूर हो सकें।
मुंडाओं ने युवा और प्रेरणादायक बिरसा मुंडा, जिसे वे प्रेम से धरती अबा या धरती पिता कहते थे के नेतृत्व में एक आत्म-शुद्धि आंदोलन शुरू किया। धीरे-धीरे, यह ब्रिटिश प्रभाव को समाप्त करने और पारंपरिक मुंडा शासन को बहाल करने के लिए एक सशस्त्र विद्रोह में तब्दील होता गया। बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर रांची जेल में रखा गया, जहां 1900 में मात्र 25 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
हालांकि, बिरसा मुंडा के प्रयासों ने अंग्रेजों को खूंटकट्टी प्रणाली को बहाल करने के लिए मजबूर कर दिया। खूंटी और गुमला में उप-मंडल बनाकर आम लोगों द्वारा प्रशासन तक आसान पहुंच की सुविधा प्रदान की गई और अंत में 1908 के छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को भी लागू किया, जो अभी भी प्रभावकारी है।
बिरसा कॉलेज खूंटी से ग्रेजुएशन कर रहे जौनी मुडा कहते हैं कि वह बिरसा मुंडा की पीढ़ी से हैं। वह बताते हैं कि बिरसा तो अविवाहित थे, लेकिन वह उनके भाई कानू मुंडा के परिवार के वंशज हैं। जौनी इस बात पर दुख जताते हैं कि अब तक उनके परिवार के सिर्फ दो लोगों को ही सरकारी नौकरी दी गई है। शेष अपने जीवनयापन के लिए जिद्दोजहद में लगे हुए हैं।
फ़ोटो : मनोब चौधरी