नई दिल्ली/रायपुर
जब रामायण सिंह बरिहा ने अपने घर के पास जंगल की सड़क पर पहली बार किसी हाथी को देखा, तो जिज्ञासा पर डर भारी पड़ गया। उन्होंने बताया कि अगर वे बाइक मोड़कर भागने की कोशिश करते, तो शायद हाथी उनका पीछा कर लेता। डर इतना गहरा था कि वे अगली सुबह ही अपनी गाड़ी लेने लौट सके।
अचानकपुर गांव (छत्तीसगढ़) के निवासी रामायण सिंह बरिहा ने The Indian Tribal से बातचीत में बताया कि ज़्यादातर ग्रामीणों की तरह, वे भी सीमित सुविधाओं और छात्रावासों की कमी के कारण कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए। लेकिन जो वे शिक्षा के ज़रिए हासिल नहीं कर सके, उसे अब वे ईको-टूरिज्म के माध्यम से पा रहे हैं — एक ऐसा सतत मॉडल जिसने उनके ग्रामीण जीवन को पूरी तरह से बदल दिया है।
कभी अपने जंगलों में घूमते हाथियों से भयभीत रहने वाले छत्तीसगढ़ के बरिहा आदिवासी अब एक नेचर रिज़ॉर्ट चला रहे हैं, जो हज़ारों पर्यटकों को आकर्षित कर रहा है और स्थानीय जीवन में सकारात्मक बदलाव ला रहा है।
ईको-टूरिज्म की सफलता की कहानी
बलौदा बाज़ार ज़िले के देवपुर वन क्षेत्र में स्थित देव हिल्स नेचर रिज़ॉर्ट अब परिवर्तन की मिसाल बन चुका है। वर्ष 2011 में केवल छह शंकु आकार के कॉटेज से शुरू हुआ यह रिज़ॉर्ट आज ईको एथनिक पर्यटन विकास समिति द्वारा संचालित है, जिसके सदस्य मुख्य रूप से अचनकपुर के बरिहा आदिवासी समुदाय से हैं।
बरिहा और लगभग दर्जनभर अन्य ग्रामीणों के लिए यह रिज़ॉर्ट स्थायी आजीविका का साधन बन गया है। वे बताते हैं कि समिति के सदस्य स्वयं मरम्मत और रखरखाव का काम संभालते हैं, जबकि दूध और सब्ज़ियाँ आसानी से गांव से मिल जाती हैं।
रिज़ॉर्ट प्रबंधक मुकेश कुमार पोटाई के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में यहाँ 14,000 से अधिक पर्यटक ठहर चुके हैं। मोबाइल नेटवर्क लगभग न के बराबर होने के बावजूद, यह स्थान प्रकृति प्रेमियों, वन्यजीव प्रेमियों और ऑफबीट यात्रियों के बीच बेहद लोकप्रिय है।
यहाँ आने वाले पर्यटक साधारण भोजन, गाँव की सैर और समिति के सदस्यों द्वारा कराई जाने वाली जंगल ट्रेक का आनंद लेते हैं। इस क्षेत्र में हाथी, तेंदुआ, भालू और हिरण अक्सर देखे जाते हैं।


देव हिल्स परियोजना की परिकल्पना छत्तीसगढ़ वन विभाग ने स्थानीय रोजगार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की थी। हाल ही में ओडिशा से प्रशिक्षण लेकर लौटे वनरक्षक टीकम ठाकुर बताते हैं कि ऐसे प्रयास लोगों और प्रकृति के बीच तालमेल को मज़बूत करते हैं। उनके अनुसार, ईको-टूरिज्म लोगों को संरक्षण में हिस्सेदारी का एहसास कराता है और जंगलों व वन्यजीवों के प्रति जागरूकता बढ़ाता है।
घने बाँस के जंगलों के बीच बसे अचानकपुर में आज भी पारंपरिक रोज़गार जैसे बाँस बुनाई, मशरूम संग्रहण और करील (कोमल बाँस की कोपलें) इकट्ठा करना आम है। पारंपरिक बाँस की टोकरियाँ ‘झऊआ’ आज भी कुछ कारीगर जैसे बरातू राम बारीहा बनाते हैं, हालांकि अब उसका बाज़ार कमजोर पड़ गया है। वे कहते हैं कि वे झऊआ इसलिए बनाते हैं क्योंकि यह उनकी पहचान का हिस्सा है।
हालांकि जंगल में जाना हमेशा सुरक्षित नहीं होता। हाथियों के हमले आम हैं और धान की फसलें अक्सर इनसे प्रभावित होती हैं। ठाकुर बताते हैं कि हाथियों की आवाजाही के दौरान अलर्ट जारी किए जाते हैं, फिर भी ग्रामीण जंगल उत्पाद एकत्र करने का जोखिम उठाते हैं क्योंकि जंगल ही उन्हें भोजन और काम देता है।
हरियाली के सोने की सैर
रिज़ॉर्ट के सामने लगभग तीन किलोमीटर लंबी निर्देशित वन यात्रा पर्यटकों को इस क्षेत्र की जैव विविधता का अनुभव कराती है। बरीहा बताते हैं कि मानसून के दौरान रास्ता फिसलन भरा हो जाता है, लेकिन दृश्य अद्भुत होता है। वे बाँस पर उगने वाले मशरूम की ओर इशारा करते हुए बताते हैं कि इसे छत्तीसगढ़ का “हरियाली का सोना (Green Gold)” कहा जाता है।
डॉ. गीतांजलि सिंह, सहायक प्राध्यापक, वनस्पति विज्ञान विभाग, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) बताती हैं कि बाँस पर उगने वाले सभी मशरूम खाने योग्य नहीं होते। केवल कुछ प्रजातियाँ, जो दीमक-समृद्ध मिट्टी में उगती हैं, सुरक्षित रूप से खाई जा सकती हैं।


यात्रा के दौरान करील — यानी बाँस की कोमल कोपलें, जो आदिवासी भोजन का अहम हिस्सा हैं — भी दिखाई दीं। ठाकुर ने गर्व से एक कोपल दिखाते हुए कहा कि यह एक ऐसा जंगल व्यंजन है जो हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है।
आज बरीहा लगभग Rs 12,500 प्रतिमाह कमा लेते हैं और समिति के वरिष्ठ सदस्यों में गिने जाते हैं। वे बताते हैं कि शुरू में ग्रामीणों को यह भी नहीं पता था कि इस क्षेत्र को रिज़ॉर्ट के रूप में विकसित किया जा रहा है, लेकिन अब पर्यटन ने सब कुछ बदल दिया है। लोग बेहतर कपड़े पहनते हैं, बच्चों को स्कूल भेजते हैं और रोज़मर्रा की मज़दूरी से आगे सोचने लगे हैं।
शिक्षा अब भी एक चुनौती है, लेकिन पोटाई मानते हैं कि परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी है। वे गर्व से बताते हैं कि जहाँ पहले कोई अंग्रेज़ी नहीं पढ़ सकता था, अब अचानकपुर का एक युवक कॉलेज में पढ़ रहा है। शायद अगली पीढ़ी और बड़े सपने देखेगी।
आधुनिक प्रभावों के बावजूद, बरीहा समुदाय आज भी अपनी पारंपरिक कर्मा पूजा मनाता है — जिसमें पवित्र करम वृक्ष की डाल की पूजा की जाती है। यह अनुष्ठान उनके और प्रकृति के गहरे संबंध को जीवित रखता है।
सलवा जुडुम से शांति तक
पोटाई की अपनी यात्रा भी उसी परिवर्तन की प्रतीक है जिसका प्रतिनिधित्व देव हिल्स करता है। कभी उनका परिवार सलवा जुडुम आंदोलन की हिंसा का शिकार हुआ था, लेकिन आज वे शांति और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीते हुए रिज़ॉर्ट का प्रबंधन कर रहे हैं।

भविष्य की योजनाओं के बारे में वे कहते हैं कि वे मेहमानों के लिए मिलेट आधारित व्यंजन शुरू करना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ भले ही “भारत का धान का कटोरा” कहलाता है, लेकिन यहाँ के पारंपरिक बाजरा, रागी, कोदो और कुटकी जैसे अनाज पोषक और टिकाऊ हैं। वे चाहते हैं कि पर्यटक इस क्षेत्र की सच्ची संस्कृति का स्वाद चखें।
पेड़ों की शाखाओं पर बने बीजा ट्री डाइनिंग एरिया, आदिवासी भित्ति चित्रों और बाँस की देहाती सजावट से सुसज्जित देव हिल्स नेचर रिज़ॉर्ट केवल एक पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि यह प्रकृति के साथ तालमेल, दृढ़ता और अनुकूलन की जीवंत कहानी है।













