रायपुर/नई दिल्ली
मोटा अनाज, जिन्हें अक्सर प्राचीन सुपरफूड्स कहा जाता है, आज पूरे भारत में एक बार फिर से मजबूत वापसी कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में इन जलवायु-स्मार्ट और पोषक अनाजों को बढ़ावा देने का रास्ता एकदम अनोखा है—मिलेट स्टील कार्ट्स के ज़रिए।
महिलाओं की कठिन मेहनत
सिकिया, कोदो और कुटकी जैसे मिलेट्स पौष्टिक होते हुए भी छिलाई में कठिन हैं। ग्रामीण महिलाएं अब भी पारंपरिक तरीकों पर निर्भर हैं—जैसे मुसर (गड्ढों में लकड़ी से कूटना) और जटा (मिट्टी के चक्के को घुमाना)। मशीनें मौजूद होने के बावजूद इनका उपयोग सीमित है, जिससे मिलेट प्रोसेसिंग बेहद कठिन और समय लेने वाली बन जाती है।

यही कठिनाई, और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत चावल की आसान उपलब्धता, ग्रामीण घरों में मोटे अनाज की खपत को कम कर रही है। दूसरी ओर, शहरी उपभोक्ता इन्हें स्वास्थ्य लाभों के कारण तेजी से अपना रहे हैं। इसके बावजूद, आदिवासी समाज, विशेषकर महिलाएं, अब भी मोटे अनाज को अपनी संस्कृति, आजीविका और त्योहारों से जोड़कर देखती हैं।
ओडिशा के मिलेट कैफे से छत्तीसगढ़ के स्टील कार्ट्स तक
ओडिशा में मिशन शक्ति के तहत चल रहे मिलेट कैफे ने महिलाओं को सशक्त बनाने और मोटे अनाज के पकवानों को लोकप्रिय बनाने में बड़ी सफलता पाई है। इसी मॉडल से प्रेरित होकर, भिलाई स्थित छत्तीसगढ़ स्वामी विवेकानंद तकनीकी विश्वविद्यालय के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अग्रंशु द्विवेदी ने इसे नए अंदाज़ में अपनाने की योजना बनाई है।
“छत्तीसगढ़ में मिलेट्स को पुनर्जीवित करने के लिए CSR परियोजना के तहत जल्द ही मिलेट हैंड कार्ट्स शुरू किए जाएंगे। कुल 108 चलायमान स्टील कार्ट्स महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को निःशुल्क दिए जाएंगे। शुरुआती चरण में 72 कार्ट्स वितरित होंगे और शेष बाद में। इन समूहों को मिलेट व्यंजनों की तैयारी की ट्रेनिंग दी जाएगी,” द्विवेदी ने The Indian Tribal को बताया।

ये कार्ट्स इडली, डोसा, नूडल्स और मोमोज जैसे मिलेट-आधारित फास्ट फूड परोसेंगे। कुछ प्रोसेसिंग मशीनें खरीदी जा चुकी हैं और मोटे अनाज की आपूर्ति राज्य लघु वनोपज सहकारी संघ से की जाएगी। ये कार्ट्स, मोबाइल फूड ट्रक की तरह, सबसे पहले पाटन, दुर्ग और राजनांदगांव में चलेंगे, जहां महिलाओं को करीब 50 तरह के मिलेट व्यंजन बनाने का प्रशिक्षण मिलेगा।
महिलाओं द्वारा संजोए गए ये मोटे अनाज कृषि में स्त्रीकरण (feminisation of agriculture) को बढ़ावा दे सकते हैं। इन पारंपरिक अनाजों का पतन केवल पोषण और जलवायु-लचीलापन पर ही नहीं, बल्कि घर और खेतों में लैंगिक संतुलन पर भी असर डालता है।
छत्तीसगढ़ का मिलेट मिशन
भारत का “धान का कटोरा” कहलाने वाला छत्तीसगढ़, दरअसल कोदो, कुटकी और रागी जैसे मोटे अनाजों की गहरी जड़ें भी समेटे हुए है। राज्य ने 2021 में अपना मिलेट मिशन शुरू किया और आज भी खरीदी महिलाओं की समितियों के माध्यम से की जाती है।
वित्त वर्ष 2023-24 में समर्थन मूल्य था—कोदो ₹3,200 प्रति क्विंटल, कुटकी ₹3,350 प्रति क्विंटल और रागी ₹3,846 प्रति क्विंटल। किसान पारंपरिक रूप से इन अनाजों की जैविक खेती करते हैं, जो इनकी सततता और मजबूती को दर्शाता है।
पोषण अभियानों में मोटा अनाज
पोषण पखवाड़ा और पोषण महीना जैसे सरकारी अभियानों के दौरान आंगनवाड़ियों में भी मोटे अनाजों को खास जगह दी जा रही है। हफ्ते भर के चौपालों में महिलाओं को पोषण की जानकारी दी जाती है और व्यंजन जैसे पकौड़ा, चीला, हलवा, लड्डू और रागी पेज परोसे जाते हैं।

“छत्तीसगढ़ में कोदो और कुटकी बहुत पसंद किए जाते हैं। यहाँ के लोग ज्वार और बाजरा उतना नहीं खाते,” मोहला-मानपुर-चौकी, एक आदिवासी बहुल जिले की आंगनवाड़ी प्रभारी भुवनेश्वरी यादव बताती हैं। “कई लोग रागी का भी खूब इस्तेमाल करते हैं। रागी का आटा भी खाया जाता है और रागी का पेज भी।”
भविष्य का जलवायु-स्मार्ट अनाज
खरीफ 2024 में छत्तीसगढ़ ने 12,388 हेक्टेयर में कोदो और 27,183 हेक्टेयर में कुटकी की खेती दर्ज की। ये आँकड़े छत्तीसगढ़ के कृषि परिदृश्य में मिलेट्स की मजबूती और उनकी प्रासंगिकता को फिर से साबित करते हैं।
सेहत के प्रति जागरूक शहरी युवाओं से लेकर जलवायु परिवर्तन से जूझती ग्रामीण महिलाओं तक—मोटे अनाज अब फिर से थाली में अपनी जगह बना रहे हैं।
स्टील कार्ट्स की शुरुआत के साथ छत्तीसगढ़ सिर्फ एक प्राचीन अनाज को पुनर्जीवित नहीं कर रहा है, बल्कि पोषण, महिला सशक्तिकरण और सतत विकास की नई कहानी भी लिख रहा है।