कोरापुट
पिछले दो दशकों से कोरापुट जिले के कोटपद ब्लॉक के सौरा कुहुड़ी गांव के पिंकू सोराबू (उम्र 30) भोटड़ा महिलाओं के लिए गहने बना रहे हैं। उन्होंने यह हुनर अपने पिता स्व. नंद किशोर सोराबू से सीखा। 35 से अधिक पारंपरिक डिज़ाइनों के साथ, पिंकू आज भी वह परंपरा ज़िंदा रखे हुए हैं, जिसका इतिहास पीढ़ियों पुराना है। दुख की बात यह है कि इस कला को सरकारी या निजी संस्थाओं की कोई मदद नहीं मिली।
भोटड़ा जनजाति—जिन्हें भत्रा, भोट्रा, बोथड़ा, बोत्तारा और धोत्तड़ा भी कहा जाता है—मुख्य रूप से दक्षिण ओडिशा के कोरापुट और नबरंगपुर जिलों में निवास करती है। वे ‘भटरी’ बोली बोलते हैं और तीन प्रमुख समूहों—बड़ा, मध्य और साना—में बंटे हैं। इनके भीतर भी अनेक ‘गोत्र’ हैं, जैसे कछिमो (कछुआ), गोयी (छिपकली), कुकुर (कुत्ता), भाग (बाघ), नाग (सांप), पंडकी (कबूतर), मंकड़ (बंदर), और छेली (बकरी)।
गांवों जैसे सौरा कुहुड़ी, घनसुली और बड़ा पाड़ा में लगभग दो दर्जन परिवार—अधिकतर सुनाड़ी समुदाय से—भोटड़ा महिलाओं के लिए गहनों का निर्माण करते हैं। कारीगर कहते हैं, “हम पीढ़ियों से जनजातीय गहने बना रहे हैं। यह कला हमारे पिता और दादा से मिली है।” लेकिन सस्ते, नकली और फैन्सी गहनों की बाढ़ के कारण इन असली गहनों की अहमियत घटती जा रही है।
भोटड़ा महिलाएं ‘कासु माली’, ‘गुरिया माली’, ‘हासा पाई माली’, ‘चपसरी मुंडी’, ‘कंठी माली’, ‘चपसरी माली’ और ‘बेटला’ जैसे गहने पहनती हैं। इनके अलावा कान के बुंदे, नाक के फूल, अंगूठियां और ‘खड़ु’ (धातु की चूड़ियां) भी लोकप्रिय हैं। त्योहारों में महिलाएं पूरे पारंपरिक गहनों का श्रृंगार करती हैं।
सोनिया भत्रा, एक आदिवासी किसान महिला कहती हैं, “साधारण दिनों में हम सिर्फ कान के बुंदे और नथ पहनते हैं। कुछ महिलाएं कान की हेलिक्स में बेटला पहनती हैं। लेकिन पूजा-पर्वों पर पूरा गहना धारण करते हैं।”

सोमा भत्रा, बड़ा पाड़ा से बताते हैं, “हम कारीगरों से तांबे के नाग भी बनवाते हैं ताकि शिवजी को अर्पित कर सकें। हमारी महिलाएं मुंडी और तांबे के बने खड़ु भी पहनती हैं। अब गैर-आदिवासी महिलाएं भी इन्हें पसंद कर रही हैं और खास डिज़ाइन ऑर्डर देती हैं।”
गहने बनाने में लगभग 40 औज़ारों का प्रयोग होता है—जैसे गारसी (वेल्डिंग), निह (हथौड़ा), करली (फ्रेम), और फेल (धार तेज करने के लिए)। पिंकू सोराबू हर मंगलवार को कोटपद हाट (1.5 किमी दूर) में अपने गहने बेचते हैं। वे कभी-कभी आय बढ़ाने के लिए मोटरसाइकिल से छत्तीसगढ़ के बाज़ारों तक भी जाते हैं।
पिंकू बताते हैं, “मेरी मां सुवर्णा, पत्नी द्रौपदी और बहन गिरिजा मेरी मदद करती हैं। हम परंपरागत डिज़ाइन बनाते हैं और ऑर्डर मिलने पर कस्टम गहने भी तैयार करते हैं। कोटपद बाजार में मेरी साप्ताहिक आमदनी 2,000 से 3,000 रुपये होती है। जबकि मेरे पिता लगभग 8,000 रुपये प्रति हफ्ता कमाते थे। लेकिन अब सस्ते नकली गहनों ने हमारी कला की कीमत घटा दी है।”
कुछ कारीगर पारंपरिक डिज़ाइनों तक सीमित हैं, जबकि धनिराम सोराबू जैसे कारीगरों ने विविधता लाई है। वे करीब 50 डिज़ाइन बनाते हैं, जिनमें चांदी और सोने की परत वाले गहने भी शामिल हैं। वे छत्तीसगढ़ के विभिन्न साप्ताहिक हाटों में बेचकर हफ्ते में 10,000 रुपये तक कमा लेते हैं।
नबरंगपुर जिले के पिलिका (12 परिवार), श्याला (5 परिवार) और लिम्भाटा (2 परिवार) में भी गहना निर्माण होता है। ग़ोपाल सराबू बताते हैं, “हम 40 से ज़्यादा डिज़ाइन बनाते हैं और सोमवार को नबरंगपुर हाट, गुरुवार को दाउगांव और शनिवार को कालाहांडी के अमपानी में बेचते हैं। इन बाज़ारों तक बस से जाते हैं, क्योंकि वे हमारे गांव से 35 किमी दूर हैं। हमारी साप्ताहिक कमाई 12,000 से 13,000 रुपये होती है।”
गहनों के लिए पीतल, कांसा (घंटी धातु) और तांबे का उपयोग होता है। कांसे से ठोस गहने बनाए जाते हैं, जबकि तांबा और पीतल की तारें गहनों का रूप लेती हैं। ‘रंगा’ नामक एक स्थानीय रसायन (10 ग्राम की कीमत लगभग ₹20) कांसे में मिलाकर वेल्डिंग की जाती है।

धनिराम कहते हैं, “मेरे डिज़ाइन अलग-अलग दाम पर बिकते हैं। साधारण बुंदे 10 रुपये में बिकते हैं। चांदी की परत वाले 40 रुपये और सोने की परत वाले 60 रुपये में। लेकिन कच्चे माल के दाम बढ़ने-घटने से कीमतें भी बदलती रहती हैं।”
हालांकि कोटपद की यह कला ओडिशा की 61 आधिकारिक हस्तकलाओं में शामिल है, लेकिन सरकार या कोई संस्था इन्हें बढ़ावा नहीं दे रही। कारीगरों का कहना है, “हम जानते हैं कि आदिवासी गहनों की मांग ओडिशा से बाहर और विदेशों तक है। लेकिन हमारे पास न ऑनलाइन न ऑफलाइन कोई बाज़ार से जुड़ाव है। हमें डिजिटल प्लेटफॉर्म चाहिए, पर हमें चलाना नहीं आता।”
पिंकू याद करते हैं, “हैंडिक्राफ्ट निदेशालय ने हमें और मेरे पिता को एक दशक पहले ट्रेनिंग दी थी। तब विदेशी पर्यटक भी आते थे और खरीदते थे। लेकिन कोविड के बाद कोई नहीं आया।” धनिराम जोड़ते हैं, “अधिकारी आते हैं, वादे करते हैं, पर कुछ बदलता नहीं। बस उम्मीद ही बाकी है।”
भुवनेश्वर की संस्था ‘अन्वेषा ट्राइबल आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स’ ने एक साल पहले सहयोग की कोशिश की थी, लेकिन दूरी और लॉजिस्टिक्स की वजह से प्रोजेक्ट ठप हो गया। सचिव दंबरुधर बेहरा कहते हैं, “हमने कुछ कारीगरों को ट्रेनिंग भी दी थी, लेकिन व्यावसायिक रूप से इसे आगे बढ़ा पाना संभव नहीं हुआ।”