भुवनेश्वर
दूर तक फैले खेतों में बच्चे किसी भी जिम्मेदारी को खेल-खेल में निभा सकते हैं। धान की फसल कटने के बाद उपज का खेतों में ही ढेर लगा दिया जाता है। खेतों में रखे धान की रखवाली करनी पड़ती है। ऐसे में फसल निगरानी की जिम्मेदारी बच्चों और युवाओं के कंधे पर आन पड़ती है। बस, यहीं से शुरू होता है रोचक खेल।
ओडिशा के नुआपाड़ा में साओरा आदिवासी बच्चे गली मांकड़ खेलते हैं। स्थानीय स्तर पर इस खेल को अमूमन ‘गलियों का बंदर’ कहा जाता है। यह दूसरी टीम के सदस्य का पीछा करने और उसे छूने का बहुत ही रोचक आदिवासी खेल है। इसमें दो समूह एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होकर बांस की छड़ी से खेलते हैं। खेतों में फसल के ढेरों के बीच 10 से 15 साल के बच्चे इस खेल को खेलते और खूब दौड़ते-भागते दिख जाएंगे। खास बात यह कि यह खेल केवल लड़के ही खेलते हैं।
खेल शुरू करने के लिए बच्चे ऐसे खेत में एकत्र होते हैं, जहां पेड़ भी हों। एक टीम का सदस्य छड़ी को पूरी ताकत से जितना संभव हो सके, उतनी दूर फेंकता है और फिर पूरी टीम दौड़ कर पास के पेड़ों पर चढ़ जाती है। इस बीच, दूसरी टीम का सदस्य छड़ी को लाने के लिए दौड़ता है। छड़ी लाने वाला लडक़ा पेड़ पर मौजूद ‘बंदरों’ यानी दूसरी टीम के सदस्यों को छूने की कोशिश करता है। पेड़ों पर मौजूद ‘बंदर’ बचने के लिए पेड़ की एक शाखा से दूसरी पर पर छलांग लगाते रहते हैं। जो भी लडक़ा छड़ी से छू जाता है, वह अगला शिकार बनता है और अब छड़ी लाने और दूसरे खिलाड़ियों को छूने की बारी उसकी है।
दयानिधि फाउंडेशन के सचिव दयानिधि गौड़ा ने The Indian Tribal को बताया, ‘इस आदिवासी खेल को शायद इसलिए ‘गलियों का बंदर’ ऐसा कहा जाता है, क्योंकि लडक़े अपने गांव के आसपास के खेतों में ही बंदर बनकर खेलते और पेड़ों पर उछल-कूद करते हैं।’
दोपहर हो या शाम, बच्चे खूब हल्ला-गुल्ला करते हुए इस खेल का आनंद लेते हैं और इस तरह खेल-खेल में अपनी फसल की निगरानी भी करते हैं।
दयानिधि का कहना है कि यह खेल भी अन्य कई आदिवासी खेलों की तरह ही धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता और आकर्षण खो रहा है। कारण वही- मोबाइल या कहीं-कहीं क्रिकेट। देश के अन्य गांवों-शहरों की तरह यहां भी ज्यादातर बच्चे फोन के आदी हो चुके हैं और हर समय उसी में खोए रहते हैं। बहुत हुआ तो कुछ बच्चे मैदानों में क्रिकेट खेलने निकल जाते हैं। उनका कहना है कि पुराने और पारंपरिक खेलों को संरक्षित करना बहुत ही जरूरी हो गया है।