भुवनेश्वर
ओडिशा के बालासोर जिले के फिल्म निर्देशक श्याम सुंदर माझी और मयूरभंज जिले के दीपक कुमार बेशरा ने अपनी फिल्मों से सिने जगत में नई हलचल मचा दी है। दिलचस्प बात यह है कि ये फिल्में आशा और निराशा के बीच बनाई गई थीं। वर्ष 2019 में बालासोर स्थित मार्शल मांडवा प्रोडक्शन के तहत रिलीज हुई श्याम सुंदर की फिल्म कुकली (प्रश्न) ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में 130 से अधिक पुरस्कार हासिल किए। इसी तरह, पिंकी प्रोडक्शन के तहत 2022 में रिलीज हुई उनकी फिल्म मीरू (तोता) ने भी विश्व स्तर पर 48 से अधिक पुरस्कार जीते।
श्याम की तरह ही निर्देशक दीपक की ‘मोहोत’ (मूल्य) और ‘पपाया’ ने विभिन्न फिल्म समारोहों में प्रशंसा बटोरी। प्रोडक्शन हाउस पुरुधुल कुड़ी के तहत रिलीज हुई ‘मोहोत’ ने 2022 और 2023 में राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 7 पुरस्कार जीते, वहीं दीपक और उनके दोस्त जोना मंडी द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित फिल्म ‘पपाया’ ने 2024 में दो पुरस्कार अपनी झोली में डाले।
हालांकि, संथाली निर्देशक श्याम और दीपक की चार फिल्मों में एक बात समान देखने को मिलती है। वह यह कि बाल नायकों सहित उनके अधिकांश कलाकार नौसिखिए हैं… ऐसे कि उन्होंने लाइट-कैमरा-एक्शन की दुनिया ही पहली बार देखी। निर्देशकों को बाल कलाकारों- दिव्यज्योति मरांडी, शिवा हेम्ब्रोम और तूफान सोरेन के बचकाने मिजाज को संभालने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी।
दिव्यज्योति और तूफान ओडिशा के मयूरभंज जिले के रहने वाले हैं, वहीं शिवा झारखंड के जमशेदपुर से ताल्लुक रखते हैं। दिव्यज्योति इस समय बालासोर जिले के बैष्णबा बांधा में बैष्णबा बांधा आश्रम स्कूल में कक्षा पांच में पढ़ती है। उसने ‘कुकली’ में मुख्य किरदार ‘पुक्ली’ की भूमिका निभाई है। जब यह फिल्म बनी, उस समय वह केवल छह वर्ष की थी। फिल्म मीरू में काम करने के दौरान उनकी उम्र नौ वर्ष थी।
शिवा की कहानी भी इससे अलग नहीं है। वह इस समय जमशेदपुर के संत रॉबर्ट्स हाई स्कूल के कक्षा सात में पढ़ रहे हैं। जब उन्होंने ‘मोहोत’ में अभिनय किया तो वह केवल आठ वर्ष के ही थे। दूसरी ओर, बारीपदा के तालाडीही प्राथमिक विद्यालय के कक्षा पांच के छात्र तूफान केवल 10 वर्ष के हैं।
‘मीरू’ के छायाकार दीपक मुर्मू ने कहा, ‘श्याम अपनी फिल्म यूनिट के सभी लोगों से उनकी पसंद का काम करवाने में माहिर हैं। उनमें काफी धैर्य है। बड़ी बात कि वह काफी मिलनसार व्यक्ति हैं। उनके दिशा-निर्देशन में काम करने के लिए बाल कलाकार भी आसानी से तैयार हो जाते हैं। उन्हें यह हुनर आता है कि कैसे किसी कलाकार से काम लेना है।
इसी साल जनवरी में आयोजित कोलकाता लघु फिल्म फेस्टिवल के प्रोग्राम निर्देशक अंकित बागची ने भी दीपक के बारे में इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए। बागची ने The Indian Tribal को बताया, ‘हमारे फिल्म फेस्टिवल में पपाया ने बेस्ट आदिवासी लघु फिल्म और तूफान ने बेस्ट बाल कलाकार का पुरस्कार हासिल किया। इससे साबित होता है कि दीपक एक बच्चे से काम निकालने में कितने कुशल हैं।
श्याम को अपनी दो फिल्मों के लिए बाल कलाकारों का चयन करने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। इसके विपरीत, दीपक को ‘पपाया’ के लिए बाल कलाकारों का चयन में काफी पसीना बहाना पड़ा। संथाली फिल्म निर्देशक कहते हैं, ‘मुझे अपनी फिल्म के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ी, क्योंकि मेरी दोनों फिल्मों में दिव्यज्योति समेत ऐसे कलाकारों ने किरदार निभाए जो मेरे बहुत करीबी थे।’
दूसरी ओर, दीपक ने The Indian Tribal से कहा, ‘‘मोहोत’ फिल्म के लिए मुझे ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा, क्योंकि शिवा को फिल्म के निर्माता सुमी हंसदा ने पहले ही चयनित कर लिया था। लेकिन ‘पपाया’ के लिए काफी पसीना बहाना पड़ा। अपने किरदारों का चयन करने के लिए प्रतिभा खोज में मुझे बारीपदा के तीन स्कूलों में जाना पड़ा, जहां से मैंने लगभग 13 कलाकारों को शॉर्टलिस्ट किया और उनमें से तूफान पहली पसंद बन कर उभरे।’
बारीपदा के भगतपुर स्थित उच्च प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक प्रशांत भुजबल ने कहा, ‘प्रतिभा खोज के लिए दीपक मेरे स्कूल आए थे, लेकिन कोई बच्चा उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया। अंत में वह तलाडीही प्राथमिक विद्यालय पहुंचे जहां की प्रधानाध्यापिका मेरी पत्नी उपमा सेनापति हैं। कई बच्चों में से उन्होंने इस स्कूल के छात्र तूफान को अपनी फिल्म के लिए छांटा।’
श्यामा की फिल्म ‘कुकली’ युद्धग्रस्त दुनिया में शांति की जरूरत पर केंद्रित है। यह भावना फिल्म की बहुत ही बातूनी किरदार पुक्ली के माध्यम से व्यक्त की गई है। पुक्ली टेलीविजन पर युद्ध से तबाह हुए दृश्य को देखने के बाद बहुत अधिक व्यथित हो गई थी और गुमसुम सी रहने लगी थी।
मुंबई के फिल्म समीक्षक, इतिहासकार, आलोचक, क्यूरेटर और लेखक अमृत गंगर ने कहा, ‘कल्पना और वास्तविकता के बीच की रेखा को धुंधला करते हुए यह फिल्म एक बच्चे की मासूमियत के जरिए बड़ा संदेश देती हुई आगे बढ़ती है। हिंसा, युद्ध और प्रकृति के विनाश के बारे में बच्ची के सवाल तथाकथित आधुनिक और सभ्य कही जाने वाली आज की दुनिया को मूक बना देते हैं। उसके द्वारा उठाए गए सवाल चीख-चीख कर जवाब मांगते हैं।’
गंगर सारण अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव, 2019 में जूरी थे, जिन्होंने ‘कुकली’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म आंका था। दूसरी ओर, फिल्म ‘मीरू’ में नायक के पिता द्वारा पिंजरे में कैद तोते को लडक़ी मीरू के जीवन और पीड़ा के रूपक के रूप में इस्तेमाल किया गया है। उसके पिता उस बच्ची को घरेलू कामों में उलझाए रखना चाहते हैं, जबकि उसकी मां उसकी बड़ा सहारा बनकर उभरती हैं, जो हमेशा उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करती रहती है।
‘कुकली’ के छायाकार राज मोहन सोरेन कहते हैं, ‘मीरू’ को बहुत ही अच्छी तरह से फिल्माया गया है और उसके विषय का प्रस्तुतीकरण भी बहुत ही शानदार है। तकनीकी रूप से यह बहुत अच्छी फिल्म है। इसी प्रकार इसके किरदारों का अभिनय भी बहुत गजब का है।’
इसी तरह, दीपक की फिल्म ‘मोहोत’ को 2022 में ब्राजील के कैंपिनास फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ लघु फिल्म के रूप में चुना गया था। यह फिल्म समय के महत्व को रेखांकित करती है। फिल्म में दर्शाया गया है कि किस प्रकार कई बच्चों के लिए शिक्षा के बजाय मोबाइल फोन ही सब कुछ बन जाता है।
दूसरी ओर, रांची के गोस्सनर फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ आदिवासी फिल्म ‘पपाया’ भी शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देती है। इस फिल्म की कहानी बाल नायक घुमरू के माध्यम से आगे बढ़ती है, जो पपीता फल को संथाली शब्द जाड़ा के नाम से जानता है। हालांकि वह जाड़ा फल यानी पपीता से वाकिफ है और इसे गांव के बाजार में बेचता भी है, लेकिन वह हमेशा ‘पपाया’ की तलाश करता रहता है, क्योंकि वह चाहता है कि पपाया बेचकर एक साइकिल खरीदेगा। हालांकि जाड़ा को ही अंग्रेजी में पपाया कहते हैं, लेकिन अंग्रेजी नहीं आने के कारण उसे यह नहीं पता चल पाता कि जिस जाड़ा को वह बाजार में बेचता है दरअसल वही पपाया है। इस प्रकार ‘पपाया’ के बारे में अज्ञानता और उसे लेकर बच्चे की कहानी के जरिण ‘शिक्षा की कमी’ पर प्रकाश डाला गया है और शिक्षा के महत्व का संदेश दिया गया है।
‘पपाया’ के सह-निर्माता जोना मंडी के अनुसार, ‘पपाया’ को शिक्षा की परिवर्तनकारी शक्ति में गहरे विश्वास के साथ एक जुनूनी परियोजना के तौर पर बनाया गया था और व्यावसायिक सफलता पर जोर नहीं दिया गया था। लेकिन सामाजिक परिवर्तन के लिए हमने कहानी कहने के तरीके पर अधिक ध्यान दिया।
फिल्म ‘मीरू’ की निर्माता पिंकी मरांडी ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा, ‘हम पूरे जुनून और जज्बे के साथ बच्चों की फिल्में बनाते हैं।’