भुवनेश्वर
चैत्र मास की पूर्णिमा या पूरे चांद को बहुत शुभ माना जाता है। इसी दिन से तीन दिवसीय कोंध उत्सव शुरू हो जाता है। यह मटिगन का समय है। सही मायने में इसे पृथ्वी का संगीत कह सकते हैं। इस वर्ष चैत्र पूर्णिमा 23 अप्रैल को पड़ रही है।
मटिगन मिट्टी के एक बर्तन यानी हांडी को कहते हैं, जिसका मुंह बकरी या भेड़ की खाल से ढका होता है। यह आदिवासियों के लोरी नृत्य में हर जगह मिलेगा।
दक्षिणी ओडिशा की तमाम जनजातियों के लोग चैत्र पूर्णिमा से अपनी देवी धारिणी या जात्री देवी की पूजा करते हैं। जात्री देवी लोगों के घरों में तलवार, पत्थर या लकड़ी के टुकड़े के रूप में बहुत ही सम्मान के साथ रखी जाती है।
इस उत्सव के लिए एक सप्ताह पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इस दौरान लोग अपने घरों में खूब साफ-सफाई करते हैं। पूजा के लिए जरूरी सामग्री एकत्र करते हैं। यही नहीं, वे मेहमानों को पेश करने के लिए लेंडा और पेनम जैसे स्वदेशी पेय भी तैयार करते हैं।
इस उत्सव के लिए पहले सामूहिक रूप से पूजा की जाती है। इसके बाद परिवार के लोग व्यक्तिगत रूप से जात्री देवी के प्रतीकों की पूजा करने के लिए अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं। पूजा कर वे लोग जात्री देवी से अपने समुदाय की भलाई के लिए आशीर्वाद मांगते हैं।
नबरंगपुर जिला कला सांस्कृतिक संघ के उपाध्यक्ष पीपी नायक ने The Indian Tribal को बताया कि पूजा के बाद बूढ़े और युवा लोरी नृत्य करने के लिए हाथ मिलाते हैं। लोरी मटिगन की ताल पर समूह में झूमने वाला नृत्य है। लोरी नृत्य के दौरान संगीतकार संगीत की धुन देने के लिए स्वदेशी यंत्रों का इस्तेमाल करते हैं। संगीतकार लोटा (धातु की छोटी बाल्टी) पर छड़ी से मारकर बहुत ही आकर्षक लयबद्ध संगीत उत्पन्न करता है।
संगीत नृत्य का कार्यक्रम संपन्न हो जाने के बाद सभी बैठ जाते हैं और त्योहार के लिए तैयार किए गए विशिष्ट मौसमी व्यंजनों का आनंद लेते हैं। पीपी नायक के अनुसार, उत्सव तीन दिन तक चलता है। तीनों दिन शुरू से लेकर अंत तक मौज-मस्ती, दावत और उल्लास का माहौल बना रहता है।