जलगांव
परिवर्तन प्रकृति का नियम है और यह आदिवासी जनजातीय समुदाय पर भी दिख रहा है। पुराने जमाने के लोग भले अभी अपनी परंपराओं से बंधे हों, लेकिन नई पीढ़ी के युवा लड़कियां और लडक़े आधुनिक समाज के साथ ताल मिलाकर चलना चाहते हैं। राज्य वन विभाग के एक बीट गार्ड लेदा सीताराम पावड़ा बताते हैं कि उन्होंने इस पीढ़ीगत परिवर्तन को देखा है। वह यह भी विस्तार से समझाते हैं कि बदलाव की नई हवा ने किस प्रकार उनकी पावड़ा जनजाति की महिलाओं के पहनावे को भी प्रभावित किया है। इसका उदाहरण उनके अपने घर में दिखता है जहां उनकी मां तो नियमित रूप से नाटी पहनती हैं, लेकिन उनकी पत्नी को साड़ी पहनना पसंद है।
लेदा सीताराम ने The Indian Tribal को बताया, ‘जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, आदिवासियों पर भी उसका असर हो रहा है। अब कई आदिवासी महिलाएं साड़ी पहनने लगी हैं, जबकि लोग आधुनिक परिधान पसंद कर रहे हैं। युवा लड़कियां तो अब धड़ल्ले से जींस पहन रही हैं।’
नाटी में एक कपड़ा कमर से नीचे धोती के रूप में पहना जाता है, जिसका ऊपरी हिस्सा सिर ढकने के लिए घूंघट की तरह इस्तेमाल होता है। विपरीत रंग का ब्लाउज इस ड्रेस के साथ खूब जचता है। यही नहीं, चांदी की चूडिय़ां और पायल के साथ रंगीन नेकपीस पूरी पोशाक हो जाती है। इस प्रकार यह पहनने वाली महिला की खूबसूरती में चार चांद लगा देती है। यह सुंदर पोशाक भीलों के एक उप-समूह, पावड़ा जनजाति की महिलाएं अधिक पहनती हैं। पावड़ा जनजाति के लोग मध्य भारत की सतपुड़ा श्रृंखला और उसके आसपास के इलाकों में अधिक रहते हैं।
लेदा सीताराम बताते हैं कि उनकी पत्नी ने कभी भी नाटी नहीं पहनी है। उन्होंने कहा, ‘मुझे व्यक्तिगत रूप से यह अच्छा नहीं लगता कि आदिवासी समुदाय अपनी संस्कृति को पीछे छोड़ नए तौर-तरीके अपनाए। लेकिन, यदि कोई महिला अधिकारी उनके घर नाटी पहनकर आए, तो इतनी सुंदर नहीं लगता, जितनी साड़ी में लगती है, क्योंकि साड़ी आजकल बिल्कुल सामान्य पहनावा हो गया है।
नाटी जलगांव की सूकी नदी के पास स्थित एक बड़े गांव पाल की दुकानों पर खूब मिलती है। इसका कारण यह है कि यहां इसका काम करने के लिए बिजली कनेक्शन हैं और यहां आदिवासियों की संख्या अच्छी खासी है, जिनमें कई पावड़ा भी हैं।
जलगांव जिला यवल वन्यजीव अभयारण्य के लिए प्रसिद्ध है। यहां भील, पावड़ा और भिलाला जैसी जनजातियां रहती हैं। जिले के गारखेड़ा गांव में मुख्य रूप से बुजुर्ग महिलाएं खूब नाटी पहने दिखाई देती हैं। लेकिन, यहां भी युवा महिलाएं और लड़कियां साड़ी ही पहनती हैं।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गांधीवादी मोहन हीराबाई हीरालाल ने आदिवासी जनजीवन और संस्कृति का अध्ययन कर रहे हैं। वह कहते हैं कि पहनावे की आदतों में बदलाव ने केवल पावड़ा ही नहीं, पूरे देश में अनेक जनजातियों को प्रभावित किया है।
हीरालाल ने कहा, ‘पहले बात अलग थी, लेकिन आज आदिवासी लोग मुख्यधारा से उतने कटे हुए नहीं हैं। नई पीढ़ी समय के साथ चलते हुए आधुनिक परिधान पहनती है। यहां तक कि गैर-आदिवासी लोग भी पश्चिमी कपड़े पहने नजर आते हैं। समय के साथ बदलाव बहुत जरूरी है, लेकिन पुरानी पारंपरिक चीजों को हमें नहीं भूलना चाहिए। पुराने रीति-रिवाजों को संरक्षित करने का एक तरीका यही है कि चीजों को संग्रहालय में रखा जाए।’
हालांकि नाटी के अलावा यहां आदिवासी संस्कृति को दर्शाने वाली एक और अनोखी चीज देखने को मिलती है। पावड़ा जनजाति बाहुल्य कुछ गांवों में एक दिलचस्प और आम बात यह है कि यहां घरों से बाहर मोहली में पानी रखा जाता है, ताकि राह चलते लोग अपनी प्यास बुझा सकें। मोहली लकड़ी से बना जल स्टैंड प्वाइंट है और यह गमले में लगे पौधों से घिरा होता है। घरों के अंदर से पानी एकत्र किया जाता है और बाहर मोहली में रखे मटकों या पानी के बर्तनों में भर दिया जाता है। आसपास पौधे लगाने का मकसद यह होता है कि इनसे मटकों का पानी ठंडा रहे और आसपास का माहौल खूबसूरत भी लगता है।
लेदा सीताराम ने इस पावड़ा जीवनशैली के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए कहा, ‘मोहली में पानी प्राकृतिक रूप से ठंडा रहता है। यहां तक कि बाहरी लोग भी यहां कभी भी आ सकते हैं और अपनी प्यास बुझा सकते हैं।’एक आदिवासी के घर के कमरे में लकड़ी का काम भी देखने को मिला। ऐसे ही एक घर की महिला बीना ने कहा, ‘इसमें इस्तेमाल की गई लकड़ी अंजन के पेड़ की होती है जो यहां खूब मिलता है।’