रांची
किसी जमाने में आदिवासी बहुल गांवों में अविवाहित और विवाहित पुरुषों के बीच खेला जाने वाला बहुत ही मनोरंजक खेल फोड़ी अब विलुप्त होता जा रहा है। कुछ-कुछ हॉकी की तरह का यह खेल अब बहुत ही कम जगहों पर खेला जाता है, लेकिन मुंडा और महतो बहुल झारखंड के खूंटी और तमाड़ इलाकों में आजकल इस पारंपरिक आदिवासी खेल को बचाने के प्रयास चल रहे हैं। दुर्गा पूजा के बाद या कार्तिक महीने के दौरान फोड़ी खेल अलग-अलग गांवों की टीमों के बीच शुरू होता है और मकर संक्रांति त्योहार तक इसके टूर्नामेंट चलते हैं। यह वह समय होता है जब इन इलाकों में धान और अन्य फसलों की कटाई पूरे जोरों पर चलती है।
प्रसिद्ध मानवविज्ञानी शरत चंद्र रॉय अपनी पुस्तक ‘द मुंडाज एंड देयर कंट्री’ में लिखते हैं, ‘‘मुंडा लोगों का प्रमुख एथलेटिक खेल फोड़ी है। इसे एक प्रकार की हॉकी कह सकते हैं। यह आमतौर पर सर्दियों के मौसम में दिन के समय खेला जाता है। दो टीमें होती हैं, लेकिन एक टीम का खिलाड़ी आकर प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी से भिड़ जाता है। पहला खिलाड़ी गेंद को हवा में बहुत तेजी से उछालता है और फिर दोनों खिलाड़ी उस गेंद पर प्रहार करने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार यह खेल तब तक जारी रहता है जब तक कि गेंद किसी एक खिलाड़ी के कब्जे में न आ जाए अथवा अन्य निश्चित सीमा तक नहीं पहुंच जाती।’’
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड के शोधकर्ता प्रियव्रत नाग ने कहा कि आदिवासी खेल फोड़ी आमतौर पर गांवों के करीब खुले इलाकों में खेला जाता है। हालाँकि किसी विशेष मैच को खेलने वाली दोनों टीमों में समान संख्या में खिलाड़ी होने चाहिए, लेकिन यह संख्या तय नहीं रहती है। खेल के मैदान का कुल क्षेत्रफल 2 या चार वर्ग किलोमीटर तक बढ़ सकता है।
इस आदिवासी खेल का तरीका भी कुछ अनोखा है। इसके लिए खेल के मैदान के बीच में स्थित एक छोटे से गड्ढे में लकड़ी की गेंद रखी जाती है और तयशुदा टीम का सदस्य गेंद को लकड़ी की छड़ से बहुत तेज मारता है। कभी-कभी गेंद को मैदान के बीच में हवा में भी उछाल दिया जाता है और दोनों तरफ के खिलाड़ी उसे अपने पाले तक पहुंचाने के लिए पूरी ताकत और सारा कौशल झोंक देते हैं।
यह खेल अमूमन विवाहित और अविवाहित पुरुषों के बीच खेला जाता है। जीत के हिसाब से ही तय होता है कि कौन अधिक शक्तिशाली है। विशेष बात यह कि जब खिलाड़ी इस खेल को खेलने के लिए मैदान में उतरते हैं तो इससे पहले गांव की महिलाएं और लड़कियां उन्हें शुभकामनाएं देते हुए पानी छिडक़ती हैं और आने वाले सीजन में अच्छी बारिश और खूब बढिय़ा फसल होने की प्रार्थना करती हैं।
इसी प्रकार जब खिलाड़ी खेल समाप्त कर वापस आते हैं तो फिर महिलाएं उनके पैर धोती हैं। यही नहीं, पाहन और पुजारी पूजा-अर्चना करते हैं और ग्राम प्रधान के साथ-साथ अन्य संपन्न वर्ग के लोग शानदार दावत देते हैं।
प्रियव्रत नाग जोर देते हुए बताते हैं, ‘‘यह आदिवासी खेल हाल के दशकों में लगातार अपनी चमक खोता जा रहा है। लेकिन, स्वदेशी संस्कृति को संरक्षित और समृद्ध करने की कोशिशों के तहत फोड़ी खेल को भी दोबारा लोकप्रिय बनाने के प्रयास शुरू हो गए हैं।’’
सामाजिक संगठनों, मुख्य रूप से स्वदेशी संस्कृति को बढ़ावा देने वाले संगठनों और ग्रामीणों ने अपने दम पर फोड़ी खेल के टूर्नामेंट आयोजित करने शुरू कर दिए हैं। खेल देखने और खेलने वालों की ओर से गजब की प्रतिक्रिया मिल रही है। अब देखना होगा कि सरकार और कॉरपोरेट सेक्टर इस खेल के संरक्षण के लिए कोई विशेष पहल करते हैं या नहीं।