ओडिशा के चार जिलों में कोंध आदिवासी समुदाय की महिलाएं कचरे से भी पैसा कमा रही हैं। राज्य के रायगडा, गजपति, कोरापुट और कंधमाल में ऐसे स्वयं सहायता समूह कार्य कर रहे हैं जो अनुपयोगी कपास और कटिंग को संसाधित यानी रिसाइकिल कर इससे खिलौने, कुशन कवर, डोरमैट, वॉल-हैंगिंग और इसी प्रकार के हर घर में प्रतिदिन काम आने वाले जरूरत के असंख्य अन्य सामान बनाते हैं। इन समूहों से अधिकतर महिलाएं ही जुड़ी हुई हैं।
कपास के कचरे से तैयार ये खूबसूरत उत्पाद मेलों और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान बेचे जाते हैं। जैसे कोरापुट के प्रसिद्ध चैता पर्व, पल्लीश्री मेला और भुवनेश्वर के आदिवासी मेले में ये वस्तुएं प्रदर्शित की जाती हैं। बड़ी मांग हैं इन बाजारों में इन सामान की।
इन स्वयं सहायता समूहों के लगभग 120 सदस्य पिछले एक दशक से सनशाइन मल्टीमीडिया एकेडमी एंड रूरल डेवलपमेंट एक्शन (एसएमएआरडीए), रायगडा के बैनर तले कार्य कर रहे हैं। बड़ी बात यह कि यहां की महिलाएं आजीविका के लिए केवल अपने शिल्पी कार्य पर ही निर्भर नहीं हैं, क्योंकि कृषि उनका मुख्य पेशा है, लेकिन हस्तशिल्प से अतिरिक्त पैसा आता है तो क्या बुरा है। घर की मदद होती है।
मां मांझी गौड़ी एसएचजी की सदस्य कुमुदिनी जोर देकर कहती हैं कि चूंकि कृषि कार्य तो मौसमी होता है। इससे आमदनी भी बहुत ज्यादा नहीं होती है, इसलिए हस्तशिल्प का काम उनके घर की जरूरतें पूरी करने के लिए बड़ी मदद पहुंचाता है।
वह कहती हैं कि इसमें कोई दोराय नहीं कि कभी-कभी घर चलाने के लिए खेती से होने वाली आमदनी में कम पड़ जाती है। हस्तशिल्प से प्रत्येक महिला को प्रतिदिन औसतन 200 से 300 रुपये की कमाई हो जाती है। इससे घर के साथ-साथ उसकी निजी जरूरतें भी पूरी हो जाती हैं।
मेले में आने वाला हर व्यक्ति इन सजावटी सामान को अपने घर ले जाना चाहता है। खिलौने तो मेलों में ही अधिक बिकते हैं। इनमें बच्चों की जान बसती है।
एसएमएआरडीए के सचिव सूर्यकांति राउत The Indian Tribal से बातचीत में कहते हैं कि महिलाओं द्वारा तैयार किए गए उत्पाद अमूमन स्थानीय बाजारों में बेचे जाते हैं। इसके अलावा, कोरापुट के प्रसिद्ध चैता पर्व, पल्लीश्री मेला और भुवनेश्वर के आदिवासी मेले आदि एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हस्तशिल्प के सामान की बिक्री खूब होती है। यहां आमदनी भी अच्छी-खासी हो जाती है। मेले में आने वाला हर व्यक्ति इन सजावटी सामान को अपने घर ले जाना चाहता है। खिलौने तो मेलों में ही अधिक बिकते हैं। इनमें बच्चों की जान बसती है।