गुवाहाटी
आदिवासी लोक साहित्य प्रकृति से बहुत ही गहराई से जुड़ा है। यहां प्रकृति माता से संबंधित अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। सभी आदिवासी समुदायों में जल, पृथ्वी, जंगल, पशु, पक्षी, सूर्य और चंद्रमा को लेकर कोई न कोई गाथा जरूर मिल जाएगी।
बोडो कछारी लोगों की भगवान अनन गोसाई-बिनन गोसाई कथा, करबी समुदाय का केपलांग और दिमासा के अरिखिदिमा के साथ-साथ जनजातीय समुदायों में विभिन्न किवदंतियां, गाथागीत, लोककथाएं व लोकगीत पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हैं। ये इनकी परम्परा का अटूट हिस्सा हैं।
प्राचीन समय से ही राज्य की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत पर हिंदू पौराणिक कथाओं का व्यापक प्रभाव रहा है। रामायण और महाभारत की कहानियां यहां के आदिवासी समुदायों के बीच हमेशा से लोकप्रिय रही हैं।
गुवाहाटी विश्वविद्यालय में लोकगीत अनुसंधान विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉ. पल्लबी बोरा The Indian Tribal से बातचीत में कहती हैं कि कुछ जनजातियों के पास रामायण के अपने संस्करण हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण कार्बी लोक महाकाव्य- साबिन अलुन है। इसके अलावा, विश्व रचना के बारे में विभिन्न जनजातियों के मौखिक आख्यान लगभग एक जैसे हैं।
असमिया जनजातीय लोककथाओं के प्रकृति मैय्या के साथ संबंध पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए डॉ. बोरा ने बताया कि बांस पूजा या कोच राजबंशी की हुदुम-देव पूजा जैसे समारोह सीधे प्रकृति से जुड़े अनुष्ठान हैं। बांस पर आधारित पूजा एक प्रकार से प्रजनन शक्ति से जुड़ा समारोह है और इसे मर्दाना ताकत का प्रतीक माना जाता है। इस समारोह में गाए जाने वाले गीतों में बांस की विभिन्न प्रजातियों, जंगली भांग, कपास और फूलों की उत्पत्ति के बारे में बखान होता है।
वह बताती हैं कि बांस पूजा के संस्कार और इससे संबंधित गीत मूल रूप से पुरुषत्व से जुड़े होते हैं। कई गीत तो बेहद कामुक और करीब-करीब अश्लील होते हैं।
डॉ. बोरा के अनुसार दरअसल, हुदुम पूजा वर्षा के देवता हुदुम देव को प्रसन्न करने के लिए होती है। सूखा पड़ जाने की स्थिति में वर्षा के देवता को प्रसन्न करने के लिए ग्रामीण महिलाएं विशेष रूप से गुप्त अनुष्ठान करती हैं। इस पूजा के दौरान न केवल अश्लील गाने गाए जाते हैं बल्कि बहुत ही कामुक या कहें कि नग्न नृत्य किया जाता है।
अन्य सभी जनजातियों में भी प्रकृति से जुड़े रीति-रिवाज और अनुष्ठान होते हैं। यहां तक कि मौखिक लोककथाएं व लोकगीतों में भी कहीं न कहीं प्रकृति का तत्व मिल जाएगा।
संयोग से असम के आदिवासी समुदायों में मौखिक परम्परा की बहुत समृद्ध विरासत मौजूद है। इतनी समृद्ध कि यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन सा समुदाय इसमें सबसे अधिक पारंगत है। कुछ जनजातियां गाथागीतों के लिए प्रसिद्ध हैं, कुछ लोक महाकाव्यों के लिए तो कई अन्य की पहचान लोकगीतों से है
डॉ. बोरा बताती हैं कि उदाहरण के लिए दिमासा जनजाति में दिसरू, कमलादेवी, धनसिरी, बेलसिरी और सुबनसिरी के गाथागीत खूब गाए जाते हैं। इसी प्रकार करबियों में हैमू और रंगसिना के गाथागीत प्रचलित हैं, जबकि सोनोवाल कछारी लोग हैदांग के गाथागीत गाते हैं।
इसके अलावा, अधिकांश आदिवासी समुदाय वसंत उत्सव पूरे हर्षोल्लास से मनाते हैं। ऐसे ही, जैसे बिहू मनाया जाता है। वसंत उत्सव के दौरान सभी जनजातियों में अपने-अपने यहां प्रचलित प्रकृति से जुड़े गीत गाए जाते हैं।विशेष रूप से बोडो, मिसिंग और राभा जनजातियों में विभिन्न प्रकार के लोकगीतों की भरमार है। अन्य सभी जनजातियों के बीच भी कितनी ही लोककथाएं, पहेलियां, मिथक और किंवदंतियां युगों से चली आ रही हैं। इनमें से बहुत सी अभी भी अलिखित हैं, जिन्हें सहेजा जाना शेष है।