नयी दिल्ली
अबुआ दिसोम, अबुआ राज (अपनी धरती, अपना राज), महिलाओं का सम्मान और अस्मिता की रक्षा। अंग्रेजी साम्राज्य की दमनकारी नीति ने जब इसमें खलल डालने की कोशिश की, तो झारखंड के भोले-भाले संथालों को योद्धा बनते देर न लगी। 1855 की हूल क्रांति इसी रोष की उपज थी। यह देश की बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं में से एक है।
संथाल अपनी जमीन पर मालगुजारी देने को तैयार न थे और उस समय की स्थिति ऐसी थी कि मालगुजारी न देने पर उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी। उस वक्त का जनजातीय समुदाय महसूस कर रहा था कि ब्रिटिश आक्रांता उनकी आजादी छीन रहे हैं। उनमें असंतोष बढ़ रहा था, लिहाजा उन्होंने मालगुजारी, बंधुआ मजदूरी और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के खिलाफ विद्रोह किया और अपने पारंपरिक हथियारों से ही अंग्रेजों से लोहा लेने की हिम्मत दिखाई। असंतोष से उपजी संथालों की इस क्रांति से पहाड़िया और अन्य जनजातीय समुदाय के लोग भी जुड़ गए थे।
रांची विश्वविद्यालय के पूर्व डीन, सामाजिक विज्ञान संकाय और इतिहासकार डॉ. आई.के. चौधरी कहते हैं कि चूँकि यह क्रांति 1857 के पहले की थी, इसलिए राष्ट्रीय धारा से नहीं जुड़ पाई। हूल क्रांति को इतिहास में वह जगह नहीं मिली, जिसकी वह हकदार है। बिरसा के आंदोलन से अधिक लोग इस क्रांति में मारे गए थे। अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंची थी। इस क्रांति में अंग्रेजों को शिकस्त मिली थी, इसलिए यूरोपीय इतिहासकारों ने इस पर लिखने से परहेज किया। ब्रिटिश व भारतीय इतिहासकारों ने इस क्रांति को महत्व नहीं दिया था। लेकिन बाद में भारतीय इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि हूल क्रांति ही थी, जिसके प्रभाव से अगस्त क्रांति, कोल विद्रोह समेत अन्य विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
संथाल क्षेत्र में इस क्रांति को चार भाइयों सिद्धो, कान्हू, चांद, भैरव और दो बहनें फूलो और झानो ने शुरू किया था, लेकिन देखते ही देखते पूरा समाज इससे जुड़ गया। भारतीय इतिहासकारों की मानें तो हूल क्रांति ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की थी। हालांकि, ब्रिटिश इतिहासकार इस क्रांति पर चर्चा करने से बचते रहे और इसके लिए विद्रोह शब्द का इस्तेमाल करते रहे। जबकि, भारतीय इतिहासकारों ने 1857 के सिपाही विद्रोह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई का दर्जा देकर कहीं न कहीं हूल विद्रोह की अनदेखी की है।
30 जून 1855 में साहिबगंज के भोगनाडीह में 10,000 लोगों की सभा में सिद्धो को राजा घोषित किया गया, कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरव को सेनापति बनाया गया। ये चारों भाई थे। इस तरह ‘अपना राज’ कायम हुआ। अंग्रेजी सरकार को मालगुजारी देना बंद हो गया। संथाल लड़ाकों ने कंपनी सरकार के दारोगा, सिपाहियों को मारना-काटना शुरू कर दिया। लेकिन कुछ गद्दारों ने कान्हू को गिरफ्तार करवा दिया।
विद्रोहियों को परास्त करने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की तमाम हदें लांघ दी थीं। चांद और भैरव को मार डाला गया। इसके बाद 26 जुलाई को भोगनाडीह में सिद्धो-कान्हू को पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई। जनवरी 1856 में हूल क्रांति समाप्त हो गई। हूल क्रांति में 30,000 से अधिक लोग शहीद हुए थे। इस क्रांति में फूलो और झानो भी बहादुरी से लड़ी थीं। इस क्रांति के बाद क्षेत्र को समग्र रूप से संथाल परगना घोषित किया गया।
रांची विश्वविद्यालय के म्यूजियोलॉजी एवं आर्कियोलॉजी विभाग के निदेशक व इतिहासकार डॉ राजकुमार कहते हैं कि हूल विद्रोह की ऊर्जा के लिए धार्मिक भावना का इस्तेमाल हुआ था। भोगनाडीह की सभा में उपस्थित 10,000 संथालों को यह विश्वास दिलाया गया कि खुद भगवान ठाकुर जी की इच्छा है कि अंग्रेजी शासन को विद्रोह से समाप्त कर दिया जाए। डॉ राजकुमार कहते हैं कि ब्रिटिश लेखकों ने लिखा कि संथाल हूल आंदोलन अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध नहीं था, बल्कि स्थानीय जमींदारों और महाजनों के अत्याचार के विरुद्ध था। जबकि, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह भारत के स्वाधीनता संग्राम का पहला राष्ट्रीय आंदोलन था, इसमें संथालों के नेतृत्व में क्षेत्र की सभी जातियों- दलित, मुसलमान, बनिया, मल्लाह आदि ने भाग लिया था।
हूल क्रांति पर कई गीत भी लिखे गए हैं। इतिहासकारों ने भी हूल क्रांति को लिखने में इन गीतों की मदद ली है। संथाल परगना क्षेत्र में हूल गीत काफी प्रचलित हैं। सिद्धू तुमि केमोन लोक छीले गो, कान्हू तुमि केमोन लोग छिले गो…(सिद्धू तुम किस तरह के व्यक्ति थे, कान्हू तुम किस तरह के व्यक्ति थे), इसी तरह – संताल मा दिसोम रे सिदो कानू किन राजा हो….(संथालों के देश में सिद्धू कान्हू ने राज किया), फूलो झानो पर भी गीत लिखे गए हैं- फूलो झानो आम दो तीर रे तलरार रेम साअकिदा…(फूलों झानो तुमने हाथों में तलवार उठा लिया), इन जैसे अनगिनत गीतों में हूल क्रांति का इतिहास छिपा है।